मधुबन (मऊ):पुण्यतिथि पर विशेष:आज़ादी के नायक तो सामाजिक न्याय के महानायक थे बिष्णुदेव गुप्त

मधुबन (मऊ):पुण्यतिथि पर विशेष:आज़ादी के नायक तो सामाजिक न्याय के महानायक थे बिष्णुदेव गुप्त

(पुण्यतिथि पर विशेष)

*आज़ादी के नायक तो सामाजिक न्याय के महानायक थे बिष्णुदेव गुप्त*

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???? *शन्नू आज़मी*✍️

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घोसी (मऊ)। आज से ठीक 19 वर्ष पहले आज ही के दिन यानि 25 नवम्बर 2001 को जनपद की धर्मनिरपेक्ष राजनीति का नायक व सामाजिक न्याय का प्रणेता हमारे बीच से सदा सदा के लिये चला गया। जी हां हम बात कर रहे हैं कभी भी सच्चाई, ईमानदारी, धर्मनिरपेक्षता व सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों से समझौता न करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकतंत्र सेनानी व प्रगतिशील लोगों के दिलों का जननायक पूर्व विधायक बिष्णुदेव गुप्त की। जिनकी आज पुण्यतिथि है। बिष्णुदेव गुप्त का जन्म जनपद के मधुबन थाना क्षेत्र के नन्दौर गांव के एक मध्यवर्गीय बरनवाल वैश्य परिवार में 15 नवम्बर 1920 को हुआ। होश संभालते ही देश के क्रांतिकारियों को फ्रांसीसी हुकूमत से लड़ते देखा। बाल मन मे ही देशप्रेम की भावना हिलोरें मारने लगी और तरुणावस्था में श्री गुप्त क्रांतिकारी सेनानियों के गुट के सदस्य बन गए और भारत को इस फ्रांसीसी हुकूमत से मुक्त कराने का संकल्प ले लिया। इस संकल्प के चलते उन्हें कई बार जेल की यातनाएं झेलनी पड़ी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में डा० राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में चल रहे समाजवादी आंदोलन से प्रभावित होकर समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए। समाजवादी विचारधारा के प्रति उनकी निष्ठा व समर्पण भाव को देखते हुए सोशलिस्ट पार्टी ने श्री गुप्त को सन 1962 के चुनाव में नत्थूपुर (वर्तमान में मधुबन) विधानसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया, लेकिन वो चुनाव हार गए। 1967 के चुनाव में ये सीट सुरक्षित हो गई तो पार्टी ने उन्हें घोसी विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया, लेकिन कम्युनिस्टों का गढ़ होने के चलते उन्हें चुनावी युद्ध मे काफी पीछे रह जाना पड़ा। फिर 1973 के आम चुनाव व 1974 के उप चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी ने नत्थूपुर क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया, लेकिन क्षेत्र के लोग हीरे की परख नहीं कर सके और उन्हें चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। चुनाव उपरांत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण द्वारा चलाये जा रहे सम्पूर्ण क्रांति अभियान में अपने पुत्र जयशंकर गुप्त के साथ कूद पड़े और एक बार फिर आज़ाद भारत मे पुत्र के साथ जेल का सफर तय करना पड़ा। लेकिन कभी अपने समाजवादी मूल्यों से समझौता नहीं किया। 1977 में कुछ तकनीकी कारणों से टिकट न मिलने के चलते निर्दल व 1980 में लोकदल के उम्मीदवार के रूप में चुनावी मैदान में उतरे, लेकिन एक जोरदार लड़ाई लड़ते हुए अंततः उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। 1985 में एक बार फिर से वो जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में नत्थूपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनावी मैदान में उतरे और अब तक उनकी अग्नि परीक्षा ले रही क्षेत्र की जनता ने उन्हें सिर आँखों बिठाकर उन्हें भारी मतों से विधायक बनाकर विधानसभा पहुंचाया और इस तरह कई हार के बाद उन्हें जीत का हार मिला।1989 के विधानसभा चुनाव में उहापोह के चलते श्री गुप्त निर्दल उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतरे लेकिन हार का सामना करना पड़ा और उसके बाद सामाजिक न्याय के इस योद्धा ने चुनाव से नाता तोड़ लिया और अपने पुराने समाजवादी साथी किशन पटनायक के समाजवादी जन परिषद से जुड़कर समाजवादी अलख जगाते रहे और बाद के दिनों में समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व भी संभाला। इस तरह बिष्णुदेव गुप्त आज़ादी के नायक के साथ सामाजिक न्याय के महानायक रहे। कुल 8 चुनाव में सिर्फ एक बार ही उन्हें जीत का सेहरा बंधा। लेकिन कभी भी अपने सिद्धांतों व वसूलों से समझौता नहीं किया।