विचार बिन्दु: मनुस्मृति (1) को जाने समझे

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय
अब जबकि मनुस्मृति के विरुद्ध युद्ध छेड़ ही दिया गया है और उसे संविधान के द्वैत में खड़ा कर ही दिया गया है तो अब यह उतना ही जरूरी हो गया है कि चुनौती स्वीकार ही कर ली जाये और उन बंदों को भी आईना दिखाया जाये जो बड़े आधुनिक, जातिप्रथा विरोधी और समतावादी समाज के होने का दावा करते हैं।
ये लोग तो तभी हार गये थे जब इन्होंने एक पुस्तक को जलाया था। भारत में तर्क-वितर्क की, खंडन-मंडन की, शास्त्रार्थ की इतनी लंबी परम्परा चली आई है। ध्यान यह भी दें कि चाहे मनुस्मृति को जलाया जाये चाहे रामचरितमानस को जलाया जाये या गीता को- कभी भी उस समाज ने जो इनका आदर करता है, कोई फतवा जारी नहीं किया, कोई सर तन से जुदा का आह्वान नहीं किया, किसी को ‘खुदा का दुश्मन’ नहीं घोषित किया। भारत की संस्कृति में वैसा कोई Index Librorum Prohibitorum (Index of Forbidden Books) नहीं रहा जैसा चर्च के इतिहास में रहा? 1242 में पेरिस में पोप नवम ग्रेगरी ने तालमुद और यहूदी पुस्तकों को जलाने के आदेश दिये थे। 1244 में पूरे यूरोप में ये पुस्तकें चर्च के आदेश से जलाई गईं। Impia Judaeorum Perfidia (1244) इसकी पुष्टि करता है। बाद में पोप इनोसेंट चतुर्थ के समय भी यही हुआ। 1121 में Theologia Summi Boni पुस्तक चर्च के आदेश से जलाई गईं। जॉन वाइक्लिफ की किताब De Civili Dominio सहित उसका बाइबिल अनुवाद जला दिया गया। सन 1520 में पोप लियो दशम् की धर्माज्ञा Exsurge Domine के द्वारा मार्टिन लूथर किंग की पुस्तकें On the Babylonian Captivity of the Church और The Freedom of a Christian सहित बहुत सी पुस्तकें जलवाई गईं। टिंडेल की अनूदित बाइबिल से लेकर गैलीलियो की डॉयलॉग तक कितनी ही पुस्तकों को जलाया गया। मैं पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों को जलाने की असंख्य औपनिवेशिक घटनाओं का कोई उल्लेख नहीं कर रहा हूँ।
तो जब मनुस्मृति को जलाया गया वह कोई क्रांतिकारी काम नहीं था। वह औपनिवेशिक तौरतरीकों का अनुसरण था। भारत में असहमति पर शास्त्रार्थ और संवाद होता था। याज्ञवल्क्य का किन किन से नहीं हुआ। कभी उषस्ति चाक्रायण से। कभी गार्गी वाचक्नवी से। कभी मैत्रेयी से।प्रह्लाद की बहस इन्द्र से होती थी। ढेरों उदाहरण हैं।
सभ्यता यही है और असल असभ्यता बुक बर्निंग है। आज तो मैं ऐसे ऐसे मूर्खों को मनुस्मृति के विरुद्ध बोलते देखता हूँ जिन्होंने मनुस्मृति को पढ़ा भी नहीं है पर उसके विरुद्ध नित्य टी वी चैनलों पर जहर उगलना उनके लिए जरूरी बन गया है।
जॉर्ज बुहलर (सैक्रेड बुक्स ऑफ ईस्ट सीरीज) और पांडुरंग वामन काणे (हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र) ने मनुस्मृति के प्रक्षेपों का विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने सुझाया कि मूल मनुस्मृति संभवतः एक संक्षिप्त “मानव धर्मसूत्र” पर आधारित थी, जिसे बाद में विस्तारित और संशोधित किया गया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने “सत्यार्थ प्रकाश” में मनुस्मृति के कई अंशों को प्रक्षिप्त बताया, खासकर वे जो वेदों से असंगत हैं। उन्होंने सिद्ध किया कि मूल मनुस्मृति वैदिक सिद्धांतों पर आधारित थी। डॉ. सुरेंद्र कुमार ने “विशुद्ध मनुस्मृति” नामक ग्रंथ में प्रक्षिप्त श्लोकों को हटाकर मूल ग्रंथ को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। लेकिन ध्यान देने की बात है कि प्रक्षेपों के निष्कासन की जगह सम्पूर्ण मनुस्मृति को जलाया जा रहा है और एक आदिग्रंथ के विरुद्ध मूर्ख घृणा का एक माहौल बनाया जा रहा है।
मनुस्मृति की 50 से अधिक पांडुलिपियां उपलब्ध हैं, और इनमें श्लोकों की संख्या (2684 से 2964 तक) और सामग्री में भिन्नताएं हैं।
और भारत में कई पब्लिकेशन हैं जो भारतीय ग्रंथों में मनमाना कुछ भी घुसेड़ कर अपना एजेंडा पूरा कर रहे हैं। 2016 और 2023 में ऐसे पब्लिशर्स के विरुद्ध कार्रवाई भी हुई।
शताब्दियों से यह स्ट्रेटेजी चली आई है। होमर की इलियड और ओडेसी में 15 से 20% का प्रक्षेप माना जाता है। स्वयं बाइबिल में ये प्रक्षेप माने जाते हैं। शैतानी छंदों पर विवाद अलग हो चुका है।
लेकिन जो बुद्धिमान होते हैं वे गेहूँ को भूसी से अलग कर लेते हैं। उन्हें दूध का दूध पानी का पानी करना आता है। वे नीर-क्षीर विवेक से सम्पन्न होते हैं। हंसो हि क्षीरं क्षिपन्ति जलं च त्यजन्ति। प्रक्षेपों को पहचानना कठिन नहीं है। पाठ्यगत असंगतियों ( textual inconsistencies) और अंतर्विरोधों ( contradictions) से समझ आ जाता है। छंदों के और छंदक्रम के उचित निर्वहन न होने से समझ आ जाता है। भाषाशास्त्रीय और शैलीगत विरोधों से समझ आ जाता है। अलग अलग पांडुलिपियाँ भेद खोलती हैं। cross-textual तुलनाएँ बता देती हैं। सैद्धान्तिक या विचारधारात्मक प्रदूषण ( doctrinal and ideological anomalies) बता देते हैं। टीकाएँ बताती हैं। बाहरी ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं।
पर यह सब पढ़े लि़खों का नसीब। अनपढ़ों और अर्धसाक्षरों का समय पुस्तकों का अपमान करता ही है।
पर ये लोग कभी बताएँगे कि जब संविधान भी एक पुस्तक है, तब उसके प्रावधानों पर बहस से इतना कतराते क्यों हैं?
बौद्धिकता से डर लगता है तो अपने बौद्धिक आलस्य के चलते किसी पुस्तक की रक्षा करते हैं और उसी आलस्य के चलते किसी दूसरी पुस्तक को पढ़े और समझे बिना जलाते भी हैं।
(क्रमशः)
साभार
मनोज श्रीवास्तव ✍️