विचार बिन्दु : मनुस्मृति (2) को जाने समझें

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय
मनुस्मृति की कोई स्पर्धा संविधान से नहीं है। जब मनुस्मृति बनी तब संविधान का अस्तित्व ही नहीं था।
मनुस्मृति की कोई स्पर्धा संविधान से हो भी नहीं सकती। संविधान भारत के लिए है, मनुस्मृति मानवता के लिए है। वह सभी वर्णों के लिए है और वह धर्म बताने के लिए है। जैसे वेद भारत ही के लिए नहीं है, वेदाधृत मनुस्मृति भी भारत भर के लिए नहीं है। मनु वेद को मनुष्य का शाश्वत नेत्र कहते हैं - पितृदेवमनुष्यमाणां वेदश्चक्षु: सनातनम्। संविधान ‘हम भारत के लोग’ के लिए है, मनुस्मृति नहीं। उसमें धर्म की परिभाषा ही इतनी व्यापक है-
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
एक अन्य स्थान पर मनु धर्म यह बताते हैं -:
वेदाभ्यास:, तपः, ज्ञानम्, इन्द्रियाणां च संयम: । धर्मक्रिया, आत्मचिन्ता च नि: श्रेयसकरं परम्॥
मनु नहीं कहते In God we trust. वो अल्लाह की कल्पना को भी धर्म के लिए आवश्यक नहीं बताते।
संविधान भारत को राज्यों का संघ कहता है-इस तरह वह भारत की उत्पत्ति कथा का आधार बताता है। India that is Bharat में इस देश की सांस्कृतिक जड़ों का संकेत है।
पर मनुस्मृति इस जगत् की उत्पत्ति की बात करती है:
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेय॑ प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥
यानी यह सब दृश्यमान जगत् सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयकाल में तम अर्थात् मूल प्रकृति रूप में एवं अन्धकार से आच्छादित था, स्पष्ट-प्रकट रूप में जाना जाने योग्य कुछ नहीं था, सृष्टि का कोई लक्षण-चिह्न उस समय नहीं था, न कुछ अनुमान करने योग्य था, सब कुछ अज्ञात था, मानो सब ओर, सब कुछ सोया-सा पड़ा था॥
मनुस्मृति मानवता का टेक्स्ट है, संविधान का वृत्त सीमित है। उसे सृष्टि की व्युत्पत्ति से मतलब नहीं। दोनों का contextual template ही अलग अलग है।
फिर मनुस्मृति आत्मार्पित नहीं है। वह तो महर्षियों के द्वारा मनु से जिज्ञासा करने का परिणाम है। संविधान एक आलोड़न की स्थिति में लिखा गया है। देश विकट परिवर्तनों, उद्विग्नताओं और उथलपुथल से गुजर रहा था तब हमारा संविधान बन रहा था। पर मनुस्मृति एक अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्ति की एकाग्रता, अविचलितता और ध्यानस्थता के कारण संभव हुई, यह मनुस्मृति के पहले शब्द ‘मनुमेकाग्रमासीनभिगम्य’ से स्पष्ट है।
संविधान अधिनियमित है, मनुस्मृति नहीं है। इसलिए संविधान को सुविधा है कि उसमें कोई भी संशोधन एक औपचारिक सामूहिक प्रक्रिया के माध्यम से हो। मनुस्मृति में तो जैसा हम देख चुके हैं कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा आकर कुछ भी जोड़ जाता है। और सिर्फ जोड़ने की बात नहीं, टीका की भी बात है।टीका अर्थविस्तार करे तो समझ आता है पर वह अर्थ-संकुचन करे तो मुश्किल होती है। सायण ने वेद का यज्ञपरक अन्वय किया तो वही काम मेधातिथि ने मनुस्मृति के साथ किया। लेकिन न तो वेद अनुष्ठानमूलक थे और न वेदाश्रित मनुस्मृति। यज्ञ के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक अभिप्राय थे। जब वेद का अर्थ ही ज्ञानमूलक है तो उनके यज्ञ कर्मकांडमूलक कैसे हो सकते थे? जो मनु यह कह रहे थे कि चारों वर्णों, चारों आश्रमों, तीनों लोकों और तीनों कालों का ज्ञान वेद से है -:
चातुवर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमा: पृथक्।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात् प्रसिद्धयति ॥
जो समस्त व्यवहारों का साधक वेद को बता रहे थे:
बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम् । तस्मादेतत् परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्॥
उनकी मनुस्मृति के सर्वशुद्ध पाठ के लिए वेदानुकूलता एक बड़ा आधार है। इसलिए जो लोग मनुस्मृति पर किये गये कटाक्षों की उपेक्षा यह मान करते हैं कि वे तो मात्र एक स्मृति पर ही हैं, वे नहीं समझते कि ऐसे लोगों को यदि यहीं स्तंभित नहीं किया गया तो एक दिन ये वेद पर भी आयेंगे। उनका निशाना मनुस्मृति नहीं है, हिन्दुत्व है। आपकी पवित्र पुस्तकें आपके किले हैं। आप यह सोचकर असावधान रहेंगे कि यह तो सिर्फ एक किला गया और ‘दिल्ली दूर अस्त’ तो एक दिन आप कहीं के नहीं रहेंगे। आप सोचते हैं कि दूसरों के पास एक एक पुस्तक है और आपके पास पूरी एक लाइब्रेरी है तो आप एक दो तीन पुस्तकों का जलना अफोर्ड कर सकते हो, एक दिन आपका विद्या के प्रति यही लापरवाह नज़रिया आपके सामने वह स्थिति लायेगा जब इस लाइब्रेरी की पुस्तकें दीमकें खा चुकी होंगी।
अब मध्यकाल की तरह पुस्तकालय जलाये नहीं जाते। अब वही काम एक क्रमिक तरह से दीमकें करती हैं। नरेश सक्सेना की एक बहुत छोटी-सी बहुत प्यारी-सी कविता स्मृति में रखें:
दीमकों को
पढ़ना नहीं आता
वे चाट जाती हैं
पूरी
क़िताब।
(क्रमशः)
साभार
मनोज श्रीवास्तव ✍️