दुनियां की सबसे बड़ी ट्रेड डील से बाहर हुआ भारत,दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे 15 देश बने आरसेप का हिस्सा

दुनियां की सबसे बड़ी ट्रेड डील से बाहर हुआ भारत,दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे 15 देश बने आरसेप का हिस्सा

रिपोर्ट- विनय राय ✍️

नई दिल्ली: चीन समेत एशिया-प्रशांत महासागर क्षेत्र के 15 देशों ने रविवार को 'दुनिया की सबसे बड़ी व्यापार संधि' पर वियतनाम के हनोई में हस्ताक्षर किये हैं। जो देश इस व्यापारिक संधि में शामिल हुए हैं, वो वैश्विक अर्थव्यवस्था में क़रीब एक-तिहाई के हिस्सेदार हैं। 'द रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप' यानी आरसीईपी में दस दक्षिण-पूर्व एशिया के देश हैं। इनके अलावा दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड भी इसमें शामिल हुए हैं। इस व्यापारिक-संधि में अमेरिका शामिल नहीं है और चीन इसका नेतृत्व कर रहा है, इस लिहाज़ से अधिकांश आर्थिक विश्लेषक इसे 'क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव' के तौर पर देख रहे हैं। यह संधि यूरोपीय संघ और अमेरिका-मैक्सिको-कनाडा व्यापार समझौते से भी बड़ी बताई जा रही है। पहले, ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (टीपीपी) नाम की एक व्यापारिक संधि में अमेरिका भी शामिल था, लेकिन 2017 में, राष्ट्रपति बनने के कुछ समय बाद ही, डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को इस संधि से बाहर ले गये थे. तब उस डील में इस क्षेत्र के 12 देश शामिल थे जिसे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भी समर्थन प्राप्त था क्योंकि वे उस व्यापारिक संधि को 'चीनी-वर्चस्व के जवाब' के तौर पर देखते थे। आरसीईपी को लेकर भी बीते आठ वर्षों से सौदेबाज़ी चल रही थी, जिस पर अंतत: रविवार को हस्ताक्षर हुए। इस संधि में शामिल हुए देशों को यह विश्वास है कि कोरोना वायरस महामारी की वजह से बने महामंदी जैसे हालात को सुधारने में इससे मदद मिलेगी। इस मौक़े पर वियतनाम के प्रधानमंत्री न्यून-शुअन-फ़ूक ने इसे 'भविष्य की नींव' बतलाते हुए कहा, "आज आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर हुए, यह गर्व की बात है, यह बहुत बड़ा क़दम है कि आसियान देश इसमें केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं, और सहयोगी मुल्कों के साथ मिलकर उन्होंने एक नए संबंध की स्थापना की है जो भविष्य में और भी मज़बूत होगा। जैसे-जैसे ये मुल्क तरक़्क़ी की तरफ़ बढ़ेंगे, वैसे-वैसे इसका प्रभाव क्षेत्र के सभी देशों पर होगा।" इस नई व्यापार संधि के मुताबिक़, आरसीईपी अगले बीस सालों के भीतर कई तरह के सामानों पर सीमा-शुल्क ख़त्म करेगा। इसमें बौद्धिक संपदा, दूरसंचार, वित्तीय सेवाएं, ई-कॉमर्स और व्याव्सायिक सेवाएं शामिल होंगी। हालांकि, किसी प्रोडक्ट की उत्पत्ति किस देश में हुई है जैसे नियम कुछ प्रभाव डाल सकते हैं लेकिन जो देश संधि का हिस्सा हैं, उनमें कई देशों के बीच मुक्त-व्यापार को लेकर पहले से ही समझौता मौजूद है। समझा जाता है कि इस व्यापार संधि के साथ ही क्षेत्र में चीन का प्रभाव और गहरा गया है। हालांकि, भारत इस संधि का हिस्सा नहीं है। सौदेबाज़ी के समय भारत भी आरसीईपी में शामिल था, मगर पिछले साल ही भारत इससे अलग हो गया था। तब भारत सरकार ने कहा था कि 'इससे देश में सस्ते चीनी माल की बाढ़ आ जायेगी और भारत में छोटे स्तर पर निर्माण करने वाले व्यापारियों के लिए उस क़ीमत पर सामान दे पाना मुश्किल होगा, जिससे उनकी परेशानियाँ बढ़ेंगी।' लेकिन रविवार को इस संधि में शामिल हुए आसियान देशों ने कहा कि 'भारत के लिए दरवाज़े खुले रहेंगे, अगर भविष्य में भारत चाहे तो आरसीईपी में शामिल हो सकता है।' पर सवाल है कि 'इस व्यापार समूह का हिस्सा ना रहने का भारत पर क्या असर पड़ सकता है?' इसको लेकर भारत-चीन व्यापार मामलों के जानकार संतोष पाई से बताया कि, "आरसीईपी में 15 देशों की सदस्यता है। दुनिया का जो निर्माण-उद्योग है, उसमें क़रीब 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी इन्हीं देशों की है। ऐसे में भारत के लिए इस तरह के 'फ़्री-ट्रेड एग्रीमेंट' बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि भारत इनके ज़रिये व्यापार की बहुत सी नई संभावनाएं तलाश सकता है।" "जैसे भारत बहुत से देशों को आमंत्रित कर रहा है अपने यहाँ आकर निर्माण-उद्योग में निवेश करने के लिए, तो उन्हें भी ऐसे एग्रीमेंट आकर्षित करते हैं, पर अगर भारत इसमें ना हो, तो यह सवाल बनता है कि उन्हें भारत आने का बढ़ावा कैसे दिया जायेगा।" "दूसरी बात ये है कि भारत में उपभोक्ताओं के ख़रीदने की क्षमता बढ़ रही है, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलना करें, तो यह अब भी काफ़ी कम है। अगर किसी विदेशी कंपनी को भारत में आकर निर्माण करना है, तो उसे निर्यात करने का भी काफ़ी ध्यान रखना होगा क्योंकि भारत के घरेलू बाज़ार में ही उसकी खपत हो जाये, यह थोड़ा मुश्किल लगता है।" एक समय भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ मिलकर 'चीन पर निर्भरता' कम करनी चाह रहा था. पर अब वो देश इसमें शामिल हैं और भारत इससे अलग है। इसकी क्या वजह समझी जाये? इस पर संतोष पाई ने कहा, "भारत 'चीन पर निर्भरता' को कितना कम कर पाता है, यह छह-सात महीने में दिखाई नहीं देगा, बल्कि पाँच साल में जाकर इसका पूरा प्रभाव दिखेगा। तभी सही से पता चलेगा कि भारत ने कितनी गंभीरता से ऐसा किया। बाक़ी जो देश हैं, वो कई सालों से चीन पर अपनी निर्भरता को कम करने के प्रयास करते रहे हैं, और यही वजह है कि ये देश आरसीईपी से बाहर नहीं रहना चाहते क्योंकि उन्हें पता है कि वो इसके अंदर रहकर ही 'चीन पर निर्भरता' बेहतर ढंग से कम कर सकते हैं।" उन्होंने कहा, "आरसीईपी में चीन के अलावा भी कई मज़बूत देश हैं जिनका कई क्षेत्रों (जैसे इलेक्ट्रॉनिक और ऑटोमोबाइल) में बेहतरीन काम है। पर भारत की यह समस्या है कि भारत पिछले साल तक बहुत कोशिश कर रहा था कि चीनी ट्रेड को ज़्यादा से ज़्यादा कैसे बढ़ाया जाये और चीनी निवेश को कैसे ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षित किया जाये।" "चीन के साथ ट्रेड के मामले में भारत का 100 बिलियन डॉलर का लक्ष्य था। मगर पिछले छह महीने में राजनीतिक कारणों से स्थिति पूरी तरह बदल गई। अब भारत सरकार ने 'आत्म-निर्भर अभियान' शुरू कर दिया है जिसका लक्ष्य है कि चीन के साथ व्यापार कम हो और चीनी निवेश भी सीमित रखा जाये।" अंत में पाई ने कहा, "अगर 'आत्म-निर्भर अभियान' को गंभीरता से चलाया गया, तब भी इसका असर आने में सालों लग जायेंगे। इसलिए अभी कुछ भी कह पाना बहुत जल्दबाज़ी होगी।"