हम बेटियां हैं साहब हमारा घर कहां है? बेटी दिवस पर बेटियों का दर्द..

हम बेटियां हैं साहब हमारा घर कहां है? बेटी दिवस पर बेटियों का दर्द..

रिपोर्ट-पूनम सिंह ✍️

आज बेटी दिवस मनाया जा रहा है, सोशल मीडिया पर इस की धूम मची हुई है, बेटी दिवस सितंबर माह के चौथे रविवार को मनाया जाता है। लेकिन मेरे विचार से बेटी दिवस का महत्व अभी सार्थक नहीं है ,जब तक बेटियों को पूरी तरह सुरक्षा प्रदान नहीं हो जाता तब तक कुछ भी सार्थक नहीं कहा जा सकता, बेटियों का दर्द कौन सुनेगा ?कहने को तो सभी लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन हकीकत में बेटियों के लिए कोई कुछ नहीं कर पाता ।बेटियों के कुछ दर्द को आज मैं आप लोगों के समक्ष रखने का प्रयास करना चाहती हूं ,सर्वप्रथम तो बेटियों को इस धरा पर आने से पूर्व ही मार दिया जाता है ,अगर बच जाती है तो उसे उपेक्षा की नजरों से देखा जाता है ,बेटी का जन्म लेना जैसे कोई पाप हो जाना माना जाता है ,एक बेटी के जन्म पर इतनी खुशी नहीं होती जितना एक बेटी के जन्म पर होता है, बेटियों को यह एहसास दिलाया जाता है कि वह पराई है ,आज मां बाप के पास है, कल किसी और के पास जाना है ,फिर तो मायका पराया हो ही जाता है ,जिस घर में बेटी जन्मी खेलकूद कर पली-बढ़ी उसी घर में उसको जगह नहीं मिलती, उसी घर कि वह मेहमान बन जाती है ।एक बार सोचिए क्या बीतती है उस बेटी पर, जब उसका अपना घर , अपने ही मां-बाप उसे पराया समझने लगते हैं उस घर में उसका सब कुछ छिन जाता है ,बस एक ही रिश्ता बचता है वह भी मेहमान का, बेटियों का दर्द यहीं खत्म नहीं होता ,जिस घर में बहुत भरोसे के साथ मां-बाप भेजते हैं वह उस घर की भी नहीं हो पाती क्योंकि वहां बहू के रूप में नौकरानी चाहिए होता है ,अब ससुराल वाले चाहे प्यार से करवाएं या डांट के करना तो पड़ता ही है। कहीं-कहीं तो दहेज रूपी दानव ही मासूम बेटियों को लील जाता है ,बेटियां जन्म से ही मां-बाप के लिए बोझ होती हैं ,मां-बाप इस समाज के दरिंदों से अपने बेटियों को कितना भी बचाता है फिर भी किसी ने किसी बेटी की अस्मत लूटी ही जाती है ,अस्मत ही नहीं दरिंदगी के साथ हवस मिटाने के बाद उसकी हत्या भी की जाती है, जला दिया जाता है, बेटी तड़पती है, रोती है, पैर पकड़ती है ,लेकिन अफसोस दरिंदे नहीं सुनते ।कहां तक बेटियां लड़ेंगी साहब, गर्भ से लड़कर धरा पर आती हैं तो समाज के दरिंदे नहीं छोड़ते, दरिंदों से बच जाती है तो ,दहेज की बलिवेदी पर चढ़ाई जाती हैं ।कहां बेटियों को प्रताड़ित नहीं किया जाता है ?किसी न किसी रूप में बेटियों को हर तरह से प्रताड़ित किया ही जाता है, बेटों के बराबर अधिकार नहीं मिल पाता ।बेटियों के भी सपने होते हैं, वह भी आजाद होकर रहना चाहती हैं ,बेटियों को मायके और ससुराल जैसे बंधन में बंधकर रहना पड़ता है। बेटियां भी बेटों जैसे अपने मां-बाप के मृत्यु के बाद अग्नि देने का अधिकार चाहती हैं ,बेटियां भी समाज में स्वतंत्र रहना चाहती हैं ।मैं मानती हूं कि कुछ मां-बाप अपनी बेटियों को स्वतंत्र अधिकार भी दे रखे हैं ,लेकिन समाज के दरिंदे जीने दे तब ना ।जरूरत है इस पर विचार करने की क्योंकि बेटियों बिना परिवार ,समाज ,देश का कोई भविष्य नहीं है ।बेटियों को मात्र बातों में दुर्गा लक्ष्मी नहीं बनाए, बल्कि वास्तविक धरातल पर खड़े होकर उन्हें भी एक स्वतंत्र व्यक्तित्व का दर्जा दें। आज हर क्षेत्र में बेटियां सफलता का परचम लहरा रही है ,पर अभी भी देश के कुछ भागों में उनके प्रति व्यवहार समान नहीं है ,समाज में ऐसा माहौल होना चाहिए ,जहां पर हर कोई निसंकोच कह सकें कि --अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो