नवरात्रि पर्व एक खोज (भाग - 9)- दुर्गासप्तशती प्रथम अध्याय

नवरात्रि पर्व एक खोज (भाग - 9)- दुर्गासप्तशती प्रथम अध्याय

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय 

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           सनातन संस्कृति में ज्ञान की शिक्षा का सर्वोत्तम ग्रंथ श्रुति (वेद/वेदांत) है। स्मृति (पुराणों) में यह प्रतीक, कथा - कहानी के रूप में वर्णित हुई है। कल हम लोगों ने दुर्गासप्तशती के प्रथम अध्याय में वर्णित कथानक में सुरथ, समाधि और मेधा शब्द प्रतीकों के निहितार्थ को जाना।

राजा सुरथ से ऋषि मेधा जी से एक प्रश्न किया - *तत् किं एतत महाभग यनमोहो ज्ञानीनोरपि। ममस्य च भवत्येषा विवेकंधस्य मूढ़ता* (प्र.अ. 44/45)।मेधा ऋषि ने उत्तर दिया कि विषयों का ज्ञान तो सभी जीवों को है। क्या तुम यह नहीं देखते नरश्रेष्ठ! कि/ मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभ, मोह से ग्रस्त हैं। बात ऐसी है कि ये सभी देवी महामाया के प्रभाव से ही बलात मोह, ममता के भंवरजाल में फंसकर गर्त में गिराए गए हैं। वे ही महामाया, "अविद्या रूप" में यदि फंसती हैं तो "विद्या देवी" बनकर इस बंधन से मुक्त भी करती हैं, वही सनातन हैं, सनातनी है, सर्वस्व हैं, सर्वेश्वरी हैं - "*सा परमाविद्या मुक्ति हेतु:भूता सनातनी*" (प्र.अ. 57)। समस्याओं से मुक्ति के लिए समस्या का ज्ञान, उसके लिए जिज्ञासा और प्रश्न ये समस्या से मुक्ति हेतु आवश्यक हैं। अब जिज्ञासा के प्रश्न पर मेधा ऋषि देवी के तात्विक स्वरूप की व्याख्या करते हैं। और साथ ही बंधन का कारण बताते हुए विष्णु तथा मधु - कैटभ संग्राम की कथा सुनाते हैं।

ऋषि ने कहा - "*नित्यैव सा जग जगन्मूर्ति: यया सर्वमिदं तत"*( प्र.अ. 64)। यह श्रुति वचन है, वेदांत है। किंतु 65 से जो प्रारम्भ होता है, वह स्मृति है, "स्मृति" श्रुति कर तत्त्वदर्शन का प्रतीकों, कथा, कहानी में रूपांतरण है। कथा इस प्रकार है: भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेष शय्या पर सो रहे थे। उसी समय उनके कान के "कर्णमल से" दो दैत्य उत्पन्न हुए और ब्रह्म जी को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारते हुए भयभीत करने लगे। ब्रह्मा जी भयभीत होकर विष्णु भगवान को अपनी रक्षा हेतु स्तुति कर जगाने का प्रयास करते हैं, किंतु विष्णु जगते नहीं। वैसे ही गहन निद्रा में सोए रहते हैं। थोड़ी देर बाद सूक्ष्म ज्ञान से ब्रह्मा जी को इस बात का बोध हो जाता कि आद्या देवी ने विष्णु को अपनी योगमाया के अधीन कर सुला दिया है। ब्रह्मा जी देवी आराधना कर उनको प्रसन्न करते हैं। भगवान विष्णु की निद्रा भंग होती है, वस्तु स्थिति जानकर दोनों दैत्यों से उनको 50 हजार वर्षों तक द्वंद्व युद्ध होता है। विष्णु दैत्यों को परास्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनको देवी से ही इच्छा मृत्यु का वरदान पूर्व में ही प्राप्त होता है। अंत में देवी द्वारा मोहित दोनों दैत्य शब्दजाल में फंसकर अपनी मृत्यु का पथ प्रशस्त करते हैं और भगवान विष्णु द्वारा उनका बध कर दिया जाता है। यदि आप इसे किसी मनोरंजक कहानी की तरह पढ़ेंगे या श्रवण करेंगे तो आप बालबुद्धि हैं और यदि किसी बुद्धिमान व्यक्ति की तरह इसका मनन - मंथन, युक्ति के साथ करेंगे तो आप मनीषी हैं। कथा का सारा रहस्य श्रवण और मनन के बीच छिपा हुआ है।

दुर्गासप्तशती में तो नहीं, किंतु "देवीभागवत" इस कथा के रहस्योद्घाटन से पूर्ण श्रवण और मनन को परिभाषित भी करता है और इनमें भेद भी बताता है, तो क्यों न थोड़ी यात्रा देवीभागवत की भी कर ली जाय? वह कहता है कि "*जीवन्ति पाश्वत: सर्वे खादन्ति मोहयंति च..."*। इतनी बात तो सप्तशती भी कहती है। उसके आगे देवीभागवत उसमें जोड़ता है कि ग्रंथ श्रवण तीन प्रकार का होता है

(क) *सात्विक*: ये उत्तम कोटि के श्रोता हैं जो सात्विक भाव वाले श्रोता हैं वे वेदांत, उपनिषद, पुराण सुनते हैं और उसको गुनते हैं। मनन, मंथन करते हैं और मोक्ष/मुक्ति को प्राप्त करते हैं।

(ख) *राजसिक*: ये माध्यम कोटि के है जो राजसिक भाव वाले श्रोता है वे साहित्य, कला, राजनीति, शस्त्र विद्या, विज्ञान आदि में रुचि रखते हैं और स्वर्ग/लोक की प्राप्ति करते हैं।

(ग) *तामसिक*: ये अधम कोटि के हैं जो तामसिक भाव वाले श्रोता हैं वे परनिंदा, छिद्रान्वेषण, दोष दर्शन, चुगली, निजी स्वार्थ सिद्धि हेतु स्तुति में रुचि रखते हैं और भोग को (इंद्रियभोग को) प्राप्त करते हैं। "तामस" भी तीन प्रकार के होते हैं - (i) *उत्तम तामस*: पापचारी, दुराचारी संहार संबंधी प्रकरण में रुचि। (ii) *मध्यम तामस*: आपसी द्वेष में शत्रुता, युद्ध (iii) *अधम तामस*: अकारण विवाद में कलह, स्त्रोत। कुल मिलाकर स्मृति / पौराणिक ग्रंथों में प्रधानता श्रवण वृत्ति की ही है - "*... तदत्र श्रवणम मुख्यं पुराणस्य महामते। बुद्धि प्रवर्धनम पुण्यम तत: पाप प्रणाशनम।।"* (दे.भा. 1.6.17)।

इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर यदि यदि हम थोड़ी गहराई से सोचें और प्रधान करें कि मधु कैटभ का जन्म स्थान कहां है? उत्तर मिले भगवान विष्णु का कान या कर्ण। कण एक प्रमुख इंद्रिय है जिसकी तन्मात्रा है "शब्द"। शब्द की श्रवण करना ही कारण का कार्य है। शब्द का "मल" या "मैला शब्द" क्या हो सकता है? कुछ समझ आया? अरे चुगली, झूठी निंदा या स्वार्थ पूर्ण स्तुति ही शब्दों का मल है। यदि इसके लिए किसी संक्षिप्त भाव शब्द का प्रयोग करें तो इसे "राग-द्वेष" या निंदा-स्तुति" कह सकते है। राग और स्तुति जहां मधुर (मधु) होते है, वहीं निंदा और द्वेष कटु (कैटभ)। इस प्रकार है कम कह सकते है, शांत और प्रसुप्त जीवन में भी कोई उत्पात मचा सकता है तो वह है हमारे अपने श्रवणों से सुना गाय आधारहीन, दोषपूर्ण निंदा या चाटुकारितापूर्ण स्तुति। क्योंकि ये सत्य पर आधारित नहीं होते इसलिए ये जिसे भी निकट पाते हैं, उसी पर आक्रमण कर देते हैं। निर्दोष साधनारत बूढ़े ब्रह्मा जी पर अकारण हमला और दो मित्रों के जीवन में उथलपुथल मचा देना इन्हीं "मल", मधु और कैटभ के कृत्य है। क्योंकि रग उर द्वेष हमें मोहित कर लेते हैं, इसे स्वीकारने के कारण ही चैतन्य पुरुष भी जान नहीं पाता कि कब ये मधु और किताब कण में प्रवेश किए, अंतः रस से पोषित, पल्लवित होकर एक सबल बन गए। अब उनको मारना या परस्त करना सरल नहीं हैं। एक लंबे काल तक हम उसके दोषी और निर्दोष होने के भ्रम में पड़े पड़े या लड़ लड़कर थक जाते हैं। इनको मारने के लिए भी मधु और कैटभ को मोहित करना पड़ता है। उसे माया यह मोहमाया बन कर रूप सौंदर्य के झूठे जाल में मोहककर, भ्रमजाल में फंसाकर ही उनके अस्तित्व को समाप्त किया जा सकता है। ये दानव इतने कुटिल की फंसाने पर भी बचने का मार्ग ढूंढने का प्रयास उसी प्रकार करते है जिस प्रकार असीम जल में भी पृथ्वी पर मरने की शर्त रखी। समर्थ विष्णु ने उस क्षीरसागर में भी अपने जांघ पर पृथ्वी का दर्शन कराकर उनका बध कर डाला। ऐसे विकट असुर और महादैत्य होते हैं ये राग द्वेष संबंधी मल। 

        अध्यात्म में भी जीवनमुक्त होने के लिए इन राग, द्वेष, मोह, ममता, अपना, पराया जैसे दूषित मल को मरना पड़ता है। चिंतन को सतोगुणी बनाकर श्रुति, युक्ति और स्वानुभूति से सत्य का साक्षात्कार करना पड़ता है। जबतक सदगुरु शिक्षा देता है - "तत्त्वमसि" का, (तत् + त्वं + असि) का, कुछ समझ नहीं आता किंतु श्रवण, मनन, निद्ध्यासन के बाद समाधि में उसका साक्षात्कार होने पर और बाद में कैवल्यास्था के सुदृढ़ीकर पर दिखने लगता है कि "*ईशावास्य इदमसर्वम", "सर्वम खल्विदं ब्रह्म*", ही सत्य है। हमे एक मार्ग भी मिल जाता है जो "अथ किलकम" की प्रथम पंक्ति ही है - "*ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदी दिव्य चक्षुषे*" का क्या अर्थ, निहितार्थ है? "*अहम ब्रह्म स्वरूपिणी*", "*प्रकृति पुरुषात्मकम जगत*", "*शून्यम च शून्यम च*", "*अहं अखिलम जगत*" .....इत्यादि श्रुति, वेद और वेदांत की भाषा और रहस्यों का भेद एकदम स्पष्ट हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश में अज्ञान कहां? विद्या के आलोक में अविद्या कहां? जब सबकुछ ब्रह्म ही ब्रह्म तो उस अद्वैत की स्थिति में अब द्वैत कहां? अब तो ईशावास्य की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगी "*को मोह: क: शोक: एकत्वं अनुपस्थिति*"। मोह और शोक से मुक्त हो जाना ही तो मुक्ति है। दुर्गा सप्तशती के अंतिम चरण त्रयोदश अध्याय में वैश्य समाधि अपनी उत्तम पात्रता के कारण "मुक्ति" मांग कर भवसागर से मुक्त हो गया किंतु राज सुरथ पात्रता /ज्ञान के अभाव में अपना खोया हुआ राज्य प्राप्ति का वरदान मांगकर भवसागर में पुनः बंध गए (दु.स.13/16-18)।

वर्तमान के मधु कैटभ 

 विष्णु आज का सामान्य व्यक्ति है जो अपने अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा है और जैसे हो वह विश्राम की मुद्रा में शांत होकर लेटता है, आसपास के लोगों, कार्यालयों विवाद और सबसे अधिक टी.वी. में चल रहे "राजनीतिक और सांप्रदायिक बहस" तथा घरेलू "परिवार विध्वंशक धारावाहिक" ही हमारे कानों में विष घोल रहे हैं। साथ ही तथाकथित वॉट्सएप महाज्ञानियों से सतर्क रहने की आवश्यकता है। यहीं से तामस शब्द हमारे कानों में प्रवेश पाकर "मधु कैटभ" बनकर उत्पन्न हो रहे हैं, दानवी रूप ग्रहण कर रहे हैं और जाने अनजाने प्रतिपक्षी वोटर्स और विरोधी राजनीतिक विचारधारा/ अवधारणा के व्यक्ति के साथ युद्ध को तत्पर हो जाते हैं, मानसिक द्वेष तो सामान्य बात है। इस नवरात्र में भक्तों से यही अनुरोध है कि अपने मधु कैटभ को पहचानिए और उनका वध कर डालिए।

साभार

डॉ. जयप्रकाश तिवारी✍️

पूर्व "सीनियर रिसर्च फेलो"

पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय, नई दिल्ली।