शहीदे-आज़म भगतसिंह के जन्म की 113वीं वर्षगाँठ (28 सितंबर) पर विशेष

शहीदे-आज़म भगतसिंह के जन्म की 113वीं वर्षगाँठ (28 सितंबर) पर विशेष

रिपोर्ट- ओमप्रकाश गुप्ता ✍️

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वह जुलाई, 1930 का अंतिम रविवार था। भगतसिंह लाहौर सेंट्रल जेल से हमें मिलने के लिए बोर्स्टल जेल आए थे। वे इस तर्क पर सरकार से यह सुविधा हासिल करने में क़ामयाब हो गए थे कि उन्हें दूसरे अभियुक्तों के साथ बचाव के तरीक़ों पर बातचीत करनी है। तो उस दिन हम किसी राजनीतिक विषय पर बहस कर रहे थे कि बातों का रुख़ फ़ैसले की तरफ़ मुड़ गया, जिसका हम सबको बेसब्री से इंतज़ार था। मज़ाक़-मज़ाक़ में हम एक-दूसरे के खि़लाफ़ फ़ैसले सुनाने लगे, सिर्फ़ राजगुरु और भगतसिंह को इन फ़ैसलों से बरी रखा गया। हम जानते थे कि उन्हें फाँसी पर लटकाया जाएगा। “और राजगुरु और मेरा फ़ैसला? क्या आप लोग हमें बरी कर रहे हैं?” मुस्कुराते हुए भगतसिंह ने पूछा। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। “असलियत को स्वीकार करते डर लगता है?” धीमे स्वर में उन्होंने पूछा। चुप्पी छायी रही। हमारी चुप्पी पर उन्होंने ठहाका लगाया और बोले, “हमें गरदन से फाँसी के फंदे से तब तक लटकाया जाए, जब तक कि हम मर न जाएँ। यह है असलियत। मैं इसे जानता हूँ। तुम भी जानते हो। फ़िर इसकी तरफ़ से आँखें क्यों बंद करते हो?” अब तक भगतसिंह अपने रंग में आ चुके थे। वे बहुत धीमे स्वर में बोल रहे थे। यही उनका तरीक़ा था। सुनने वालों को लगता था कि वे उन्हें फुसलाने की कोशिश कर रहे हैं। चिल्लाकर बोलना उनकी आदत नहीं थी। यही शायद उनकी शक्ति भी थी। वे अपने स्वाभाविक अंदाज़ में बोलते रहे, “देशभक्ति के लिए यह सर्वोच्च पुरस्कार है, और मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूँ। वे सोचते हैं कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे इस देश में सुरक्षित रह जाएँगे। यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते। वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकेंगे। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार उस समय तक एक अभिशाप की तरह मँडराते रहेंगे जब तक वे यहाँ से भागने के लिए मजबूर न हो जाएँ।” भगतसिंह पूरे आवेश में बोल रहे थे। कुछ समय के लिए हम लोग भूल गए कि जो आदमी हमारे सामने बैठा है, वह हमारा सहयोगी है। वे बोलते जा रहे थे : “लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ़ एक पहलू है। दूसरा पहलू भी उतना ही उज्ज्वल है। ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगतसिंह जीवित भगतसिंह से ज़्यादा ख़तरनाक होगा। मुझे फाँसी हो जाने के बाद मेरे क्रांतिकारी विचारों की सुगंध हमारे इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जाएगी। वह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे आज़ादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे। नौजवानों का यह पागलपन ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुँचा देगा। यह मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ जब मुझे देश के लिए मेरी सेवाओं और जनता के लिए मेरे प्रेम का सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा।” भगतसिंह की भविष्यवाणी एक साल के अंदर ही सच साबित हुई। उनका नाम मौत को चुनौती देने वाले साहस, बलिदान, देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया। समाजवादी समाज की स्थापना का उनका सपना शिक्षित युवकों का सपना बन गया और ‘इन्क़लाब ज़िंदाबाद’ का उनका नारा समूचे राष्ट्र का युद्धनाद हो गया। 1930-32 में जनता एक होकर उठ खड़ी हुई। कारागार, कोड़े और लाठियों के प्रहार उसके मनोबल को तोड़ नहीं सके। यही भावना, इससे भी ऊँचे स्तर पर, ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान दिखाई दी थी। भगतसिंह का नाम होंठों पर और उनका नारा अपने झंडों पर लिए हुए किशोरों और बच्चों ने गोलियों का सामना इस तरह किया, मानो वे मक्खन की बनी हुई हों। पूरा राष्ट्र पागल हो उठा था। और फिर आया 1945-46 का दौर जब विश्व ने एक सर्वथा नए भारत को करवटें बदलते देखा। मज़दूर, किसान, छात्र, नवयुवक, नौसेना, थलसेना, वायुसेना और पुलिस तक – सब कड़ा प्रहार करने के लिए आतुर थे। निष्क्रिय प्रतिरोध की जगह सक्रिय जवाबी हमले ने ले ली। बलिदान और यातनाओं को सहन करने की जो भावना 1930-31 तक थोड़े से नौजवानों तक सीमित थी, अब समूची जनता में दिखाई दे रही थी। विद्रोह की भावना ने पूरे राष्ट्र को अपनी गिरफ़्त में जकड़ लिया था। भगतसिंह ने ठीक ही तो कहा था, “भावना कभी नहीं मरती।” और उस समय भी वह मरी नहीं थी। *(‘क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक विकास’ पुस्तिका का अंश)* *मुक्ति मार्ग – बुलेटिन 5 ♦ जुलाई-सितंबर 2020 (संयुक्त अंक) में प्रकाशित।*