बसंत ऋतु विशेष : मनप्रीत !.... तुम न होते तो शायद मेरे लिए कुछ भी नहीं होता

बसंत ऋतु विशेष : मनप्रीत !.... तुम न होते तो शायद मेरे लिए कुछ भी नहीं होता

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय

वसंत तुझ में वो रंग नहीं....

 क्या वसंत आ गया?ये मुए अंग्रेजी कैलेंडर वाले तो कुछ बताते ही नहीं।बूढ़े-पुरनिया न हों तो कुछ पता ही न चले।सच कहूं तो अब ऋतुएँ भी हमसे ख़फ़ा हो चली हैं,वो पहले की तरह हमारी ज़िन्दगी में नहीं आतीं।अब तो वो अफ़साना बनने को आतुर हैं।वास्तविकता तो ये है कि इन सबके मुजरिम हम ही हैं क्योंकि हमने प्रकृति के साथ सारी बदतमीज़ियाँ की हैं और उसका चेहरा ज़र्द करने के सारे जतन कर डाले हैं कि वो इतनी सहमी सी आती हैं कि उसकी पदचाप भी सुनाई नहीं देती।

  बहरहाल हर रुत के अपने रंग,अपने एहसास,अपनी छवि और अपनी ही छुअन है।बारिश में भीगी सड़क,पतझड़ में वीरान राहें,जाड़े में ठिठुरती पगडंडियां और वसंत में हरी-भरी वादियां।जीवन ऐसी ऋतुओं का ही मेला जो कभी सुलगती,कभी सिसकती,कभी बरसती और कभी किलकती है।

  ख़ैर!बात वसंत की हो रही थी कि जब वो आता तो खेतों में सरसों की बालियाँ झूम-झूम कर प्रीत की बातें किया करतीं हैं।पीपल के पत्तों की आवाज़ में किसी के प्रियतम की विरह कथा सुनाई देती है।भौरें फूलों की भीनी सुगंध से बौरा कर नाचने लगते और गाने लगते हैं कि मनप्रीत!मुझसे मिलकर तुमने मेरे होने को औचित्य प्रदान किया है,तुम न होते तो शायद मेरे लिये कुछ भी न होता।ये फूलों की खुशबू,ये पुरवइया की टीस और सावन-भादो के आंसुओं को कौन समझता मगर तुम्हारे होने ने इन सबका एहसास दिला दिया है।

  जो डालियाँ पतझड़ में ठूँठ गई थीं तुम्हें देख कर हरिया गई हैं।आँखों के रूप में कोंपल,रंग-बिरंगे फूल-पौधों का ठाठे मारता समंदर,हौले-हौले बहती पवन और कलरव से निकला मधुर संगीत तुम्हारे होने का एहसास दिला रहा है।

  कहा गया है कि जब प्रकृति प्रीतम की महक पाकर झूमने लगे तो समझो वसंत आ गया।सच कहो तो सिर्फ मौसम बदलने का नाम ही वसंत नहीं है बल्कि मन का सरसों के फूलों से सिली सूती चादर ओढ़ लेने का नाम भी है।ये मन का मौसम है जो समय की पाबंदियों से परे चंचल मुस्कान के साथ महकता हुवा आता है।देर से आना उसकी आदत है लेकिन जब भी आता है तो बाँहों में फूल भरकर लाता है,कभी रजनीगंधा तो कभी सरसों के फूलों का दरिया बन जाता है।उस समय जीवन पीला,सुनहरा हो जाता है।कच्ची धूप पकी सरसों सी लहलहाती है।वसंत ऋतु खेत-खलिहानों में पीले और सुनहरे रंग की बरसात ही नहीं बल्कि मन को खोदने का काम भी करती है,बकौल ग़ालिब:-

"फिर जिगर खोदने लगा नाखून

आमद-ए-फसले लालाकारी है"

 बहार के ऐसे में मौसम में फैज़ की खूब याद आती है कि:-

"गुलों में रंग भरे बादे नौ बहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले"

 लेकिन एक जगह वो भी मेरी तरह शिकायत कर ही बैठते हैं कि:-

"न गुल खिले न उनसे मिले न मय पी है

अजीब रंग में अबके बहार गुज़री है"

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लेखक-नजमुस्साकिब अब्बासी नदवी

(संस्थापक नया सवेरा फाउंडेशन गाजीपुर एवं समावेशी फेलोशिप मेंटर)