चंद्रशेखर आजाद : संघ की मुखबिरी और शहादत

चंद्रशेखर आजाद : संघ की मुखबिरी  और शहादत

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का दुःखद पहलू यह रहा कि इस लड़ाई में ज़्यादातर देशभक्त लोग शहीद हो गए और देश को बर्बाद करने के लिए अंग्रेजों के मुखबिर बच गये।

इनमें शहीद भगत सिंह, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, चंद्रशेखर आज़ाद , बिस्मिल, डाक्टर भीमराव अम्बेडकर और महात्मा गांधी प्रमुख थे। यह लोग अगले 15-20 साल तक जीवित रहते देश के लोकतंत्र की सूरत कुछ अलग होती।

भारत में इस बात की आवश्यकता है कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में एक जांच आयोग बनाकर स्वतंत्रता संग्राम में मिलाए गए झूठ का पर्दाफाश किया जाए नहीं तो 75 सालों में ही गिरोह ने इस आंदोलन में इतना झूठ मिलाया है कि आने वाले समय में रूपए पर नाथूराम गोडसे छपेगा और सावरकर नेहरू पटेल की जगह पा जाएगा।

शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी थी, तीनों लोग जेल में थे और उन्हें फांसी से बचाने की हर कोशिश नाकाम हो रही थी , ‘बहुरूपिया’ कहे जाने वाले चंद्रशेखर आज़ाद का संगठन "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी" (HSRA) कमज़ोर होकर बिखर रहा था।

आप चंद्रशेखर आज़ाद शहीद स्थल अल्फ्रेड पार्क इलाहाबाद आईए , वहां सैकड़ों की भीड़ में से कोई ना कोई आपको यह बताते ज़रूर मिलेगा कि यहां से 500 मीटर की दूरी पर आनंद भवन है , चंद्रशेखर आज़ाद वहां गांधी और नेहरू से भगतसिंह की जान बचाने के लिए मदद मांगने गये थे मगर मदद करने की बजाय नेहरू ने पुलिस को मुखबिरी कर दी और पुलिस से बचते हुए 27 फरवरी 1931 को चंद्रशेखर आज़ाद यहां आकर पुलिस से घिर गए और शहीद हो गए।

व्हाट्स एप की भी अलग दुनिया है जहां जो फारवर्डेड मैसेज आता है उसी को वेद गीता बाईबल और कुरान जैसा मान लिया जाता है लोग तुरंत विश्वास कर लेते हैं तथा गुगल और AI के दौर में भी उसके सच और झूठ का पता भी नहीं लगाते।

सवाल तो यह है कि पुलिस के पास ₹5000 इनामी जिस चंद्रशेखर आज़ाद की एक तस्वीर तक नहीं थी जिससे उनकी शिनाख्त हो सके और जिनकी सिर्फ तस्वीर हासिल करने में अंग्रेजों के पसीने छूट गए वह चंद्रशेखर आज़ाद किसकी मुखबिरी के कारण शहीद हो गए।

पुलिस के मुताबिक चंद्रशेखर आजाद के पास से 1903 मॉडल की एक कॉल्ट पिस्टल, 16 जिंदा और 22 खाली कारतूस के साथ 448 रुपये मिले थे। आजाद के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने खुद को गोली नहीं मारी‌।

चंद्रशेखर आजाद का पोस्टमॉर्टम सिविल सर्जन लेफ्टिनेंट कर्नल टाउनसेंड की निगरानी में हुआ और उनके सहायक के तौर पर डॉ. गांडे और डॉ. राधेमोहन लाल थे। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक आजाद के शरीर में 2 गोलियां दाहिने पैर के निचले हिस्से में लगीं, एक दाहिने जांघ में, एक गोली सिर में, एक गोली सीधा सीने में मारी गई थी। इसके अलावा एक गोली दाहिने कंधे को छेदते हुए फेफड़े में धंस गई।

जवाहरलाल नेहरु 31 जनवरी 1931 को इस आधार पर जेल से रिहा हुए की उनके पिता मोतीलाल नेहरू की सेहत ज्यादा खराब थी और जेल से बाहर आने के छठवें दिन ही 06 फरवरी 1931 को लखनऊ में उनका निधन हो गया।

21 दिन के शोक के बाद 27 फरवरी को मोतीलाल जी का अस्थि विसर्जन का कार्यक्रम हुआ और परिवार की परंपरा के अनुसार सुबह जवाहरलाल नेहरू ने अपने पिता मोतीलाल नेहरू की अस्थीयां चुनी व दोपहर बाद वाराणसी में गंगा में प्रवाहित की।

अर्थात जिस दिन चंद्रशेखर आज़ाद शहीद हुए उस 27 फरवरी को जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद में थे ही नहीं। यह रिकॉर्ड और अस्थि विसर्जन की तस्वीरें आनंद भवन में जनता के लिए आर्ट गैलरी में मौजूद है।

चंद्रशेखर आज़ाद शहीद हो चुके थे और इलाहाबाद में धारा 144 लगा दी गई । सुचना जवाहरलाल नेहरू की बीमार चल रहीं पत्नी कमला नेहरू तक पहुंची। कमला नेहरू चंद्रशेखर आजाद को ‘भइया’ कहती थीं। जब आजाद की शहादत की खबर उन्हें मिली तो वह चीख पड़ीं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को आजाद के शहीद होने की सुचना भिजवाई। मृत्यु के बाद चंद्रशेखर आज़ाद के पास से जो 448 रुपये मिले जो कुछ दिन पहले ही उनकी बहन कमला नेहरू ने ही दिये थे।

कमला नेहरू ने जवाहरलाल नेहरू के कहने पर पूरे इलाहाबाद को चंद्रशेखर आज़ाद के अंतिम संस्कार में भाग लेने का आह्वान किया। चंद्रशेखर आजाद के अंतिम संस्कार में पूरा इलाहाबाद उमड़ पड़ा और उसका नेतृत्व कर रही थी जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू व सचीन्द्र नाथ सान्याल की पत्नी प्रतीभा सान्याल।

वहां उस जन सैलाब को मात्र तीन लोगों ने संबोधित किया पुरुषोत्तम दास टंडन , प्रतिभा सान्याल और कमला नेहरु। तमाम प्रमाण हैं कि पुरुषोत्तम दास टंडन कमला नेहरू को लेकर इलाहाबाद के रसूलाबाद श्मशान घाट की तरफ पैदल ही भागे। मगर जब तक वह पहुँचते तब तक अंग्रेज चंद्रशेखर के शव को को बिना धार्मिक क्रिया कर्म के आग लगा चुके थे।

तब तक जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद पहुंचे और चंद्रशेखर आज़ाद की जली हुई लाश को पुनः वेद मंत्रों के साथ अंतिम संस्कार विधिवत कराया और जब प्रधानमंत्री बने तो उसी अल्फ्रेड पार्क में उसी स्थान पर चंद्रशेखर आज़ाद की समाधि का निर्माण कराया।

मगर सवाल वही है कि मुख़बिर कौन था ?

मुख़बिर था "वीरभद्र तिवारी" , चंद्रशेखर आज़ाद का करीबी और "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी" का सेंट्रल कमेटी का मेम्बर जो मात्र ₹5000/- की लालच में अंग्रेजी हुकूमत का मुखबिर बन गया।

अब सवाल उठता है की संघ या उस के अनुयायियों ने जवाहरलाल को मुख़बिर होने की कहानी क्यों तैयार की ? 

दरअसल संघ के चार स्वयंसेवकों शादीलाल, शोभा सिंह, दिवान चंद व राय बहादुर की ही गवाही व शिनाख्त से भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी तब चारों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर थू थू कार हो रही थी।

तब अगर चंद्रशेखर आजाद की हत्या का आरोप भी संघ पर लग जाता तो देश की जनता ही इस संघ का डब्बा बंद कर देती पर आजाद की शहादत की तो सारी पठकथा ही संघ ने अंग्रेज़ी सरकार के साथ मिल कर लिखी जो आजतक व्हाट्स ऐप में फैलाई जा रही है।

असल में चंद्रशेखर आजाद उस समय अपने क्रांतिकारी जीवन में यह सबक सीख चुके थे की छुपने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान सार्वजनिक जगह पार्क स्टेशन स्टैंड वगैरह थे जहां भीड़ होती थी और पहचाने जाने की बहुत कम संभावना इसलिये भी होती थी क्यों की पुलिस उनकी ऐसी जगह कल्पना नहीं करती थी जो भीड़ भाड़ वाला हो और चंद्रशेखर आजाद की फोटो तो अंग्रेजी पुलिस के पास ही नहीं थी तो आम लोग उन्हें क्या पहचान पाते ।

पर आजाद को क्या पता था की खुद के साथी ही अंग्रेजों के मुख़बिर हैं और उस रात एल्फ्रेड पार्क में चंद्रशेखर आज़ाद के होने की बात सिर्फ चार लोगों को पता थी। मन्मय नाथ , यशपाल , दुर्गा भाभी व वीरभद्र तिवारी। वीरभद्र तिवारी के तार संघ से भी जुड़े थे इस का आजाद को कभी पता नहीं लग सका।
 
शहादत के दिन की बात करें तो अंग्रेजी पुलिस की FIR में प्रथम दृष्ट्या सुचना में साफ लिखा की कुछ नौजवान वहां शाखा लगवाने जाते है रात के आखिरी प्रहर से वह वहां कसरत करते , व्यायाम करते हैं और वहां लगने वाली शाखा में से ही एक युवक वीरभद्र तिवारी ने उन्हें पहचाना और पुलिस अधिकारी शंभूनाथ को सूचना दी।

अल्फ्रेड पार्क के जामुन के पेड़ के पीछे छिपकर चंद्रशेखर आज़ाद ने 32 मिनट तक गोलियों का सामना किया और शहीद हो गये।

चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के बाद ब्रिटिश हुकूमत इतना घबरा गई कि अल्फ्रेड पार्क के उस जामुन के पेड़ को अपने सिपाहियों से कटवा दिया। दरअसल आजाद की शहादत के बाद लोग इस पेड़ की पूजा करने लगे थे और यहां की मिट्टी का तिलक करने लगे थे।

यहीं पर 1947 में आजादी मिलने के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निर्देश पर पुनः जामुन का पेड़ लगवाया गया जो आज तक मौजूद है।

जामुन के इस पेड़ के पास चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा भी है, जिसमें वे अपने जाने-पहचाने अंदाज में मूंछों पर ताव देते दिख रहे हैं। इसी पार्क में इलाहाबाद संग्रहालय भी है। जहां आजाद की वह पिस्टल रखी है, जहां चंद्रशेखर आज़ाद से संबंधित तमाम सबूत रखें हैं।

और यहीं आकर लोग व्हाट्स ऐप की झूठी कहानियां एक दूसरे को सुनाकर जवाहरलाल नेहरू को गालियां देते हैं।

दरअसल अंग्रेज़ी हुकूमत के एक अफसर ने वीरभद्र तिवारी की गद्दारी की पोल नहीं खोली होती तो जवाहरलाल नेहरू का क्या होता समझा जा सकता है।

चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी किसने की यह सवाल कई सालों तक बना रहा। कई साल बाद अल्फ्रेड पार्क में चंद्रशेखर आज़ाद को घेरने वाली 40 लोगों की आर्म्ड फोर्स का हिस्सा रहे पुलिस अफसर धर्मेंद्र गौड़ की पर्सनल डायरी ने वीरभद्र तिवारी की गद्दारी और मुखबिरी की पुष्टि की।

यह डायरी "इलाहाबाद म्यूजियम" में जनता के पढ़ने के लिए रखी हुई है जिसके शीर्षक "आजाद की पिस्तौल और उनके गद्दार साथी’ में अंग्रेजों की आर्म्ड फोर्स के गुप्तचर विंग में शामिल धर्मेंद्र गौड़ लिखते हैं- 

"27 फरवरी 1931 को आजाद अल्फ्रेड पार्क पहुंचने से पहले आनंद भवन जवाहर लाल नेहरू से मिलने गए थे‌ जहां नेहरू उनसे नहीं मिले। इसके बाद वह सुखदेव राज के साथ सुबह 9 बजे अल्फ्रेड पार्क पहुंचे। यहां भगत सिंह को छुड़ाने और बिखर रहे संगठन को फिर खड़ा करने पर बातचीत चल रही थी। और वहां शाखा में व्यायाम कर रहे वीरभद्र तिवारी ने आजाद और सुखदेव राज को पार्क में देख लिया था। वह तुरंत पुलिस अधिकारी शंभूनाथ के पास पहुंचा और कहा- पंडितजी (चंद्रशेखर आजाद) अल्फ्रेड पार्क में हैं। शंभूनाथ ने अंग्रेज अफसर मैजर्स को आजाद के पार्क में होने की सूचना दी।

आर्म्ड फोर्स के 80 जवानों को आधे मिनट में अल्फ्रेड पार्क मूव होने का आदेश मिला। 40 जवान हथियारों से लैस थे, तो 40 जवान डंडा रखे थे। सभी ​​​​​​अल्फ्रेड पार्क की ओर भागे। डिप्टी सुपरिन्टेंडेंट विश्वेश्वर सिंह के साथ सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस (स्पेशल ब्रांच) नॉट बावर भी थोड़ी ही देर में अपनी सफेद एम्बेसडर कार से अल्फ्रेड पार्क पहुंच गया।

इससे पहले ही पुलिस बल के जवानों ने पार्क को तीन तरफ से घेर लिया था। अचानक विश्वेश्वर सिंह को साथ लिए नॉट बावर पार्क के अंदर घुसा और आजाद पर फायर कर दिया। गोली आजाद की दाहिनी जांघ में लगी और हड्‌डी तोड़ती हुई निकल गई।

धर्मेंद्र गौड़ अपनी डायरी में लिखते हैं- आजाद को एहसास हो गया था कि शायद वे यहां से बचकर न निकल पाएं। उन्होंने सबसे पहले सुखदेव को वहां से भेज दिया और जेब से पिस्टल निकालने लगे। इसी दौरान विश्वेश्वर सिंह ने दूसरी गोली चला दी जो आजाद के दाहिने हाथ को चीरती हुई, उनके फेफड़े में जा घुसी। आजाद ने भी जवाबी फायर किए और नॉट बावर की कार को पंक्चर कर दिया।

इसके बाद आजाद की कोल्ट सेमी ऑटोमैटिक गन, जिसे वे ‘बमतुल बुखारा’ भी कहते थे, गरजी और नॉट बावर की कलाई को तोड़ती हुई एक गोली निकल गई। डायरी के मुताबिक आजाद 10 राउंड फायर कर चुके थे। दूसरी मैगजीन लोड करने के बाद आजाद गरजे- ‘अरे ओ ब्रिटिश सरकार के गुलाम। मर्द की तरह सामने क्यों नहीं आते। मेरे सामने गीदड़ की तरह क्यों छिप रहे हो।'

गौड़ आगे लिखते हैं- आजाद को कई गोलियां लग चुकी थीं, लेकिन वे पीछे हटने या सरेंडर करने के लिए तैयार नहीं थे। इसी दौरान कई भारतीय सिपाहियों ने आदेश के बावजूद आजाद पर गोलियां नहीं चलाईं और हवाई फायर करते रहे। इन सिपाहियों को बाद में बर्खास्त कर दिया गया। उधर विश्वेश्वर सिंह ने आजाद को सामने आने के लिए ललकारा, लेकिन तभी आजाद की एक गोली उसका जबड़ा तोड़ते हुए निकल गई।

आजाद के शहीद होने के बाद पुलिस को यकीन नहीं हो रहा था कि उनकी मृत्यु हो गई हैं। पहले उन्होंने आजाद के शव पर कई गोलियां दागीं, उसके बाद वे उनके पास गए।"

अब आप सोच रहे होंगे कि वीरभद्र तिवारी का क्या हुआ?

वीरभद्र तिवारी भी आजाद के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) का सेंट्रल कमेटी मेंबर था। जब संगठन के क्रांतिकारी रमेश चंद्र गुप्ता को उसकी इस मुखबिरी का पता चला तो उन्होंने उरई जाकर तिवारी पर गोली भी चलाई । हालांकि वो बच गया और गुप्ता गिरफ्तार हो गए और उन्हें 10 साल की सजा हुई।

रमेश चंद्र गुप्ता ने अपनी आत्मकथा ‘क्रांतिकथा’ में इस पूरी घटना के बारे में दावा किया है। इसके बाद तिवारी का क्या हुआ, कोई नहीं जानता...

"शहीद चंद्रशेखर आज़ाद के शहादत दिवस पर उन्हें खिराज़ ए अकीदत"

Moh. Zahid ✍️