पुण्यतिथि विशेष : "क्लिक कल्चर और पंडित नेहरू"

पुण्यतिथि विशेष : "क्लिक कल्चर और पंडित नेहरू"

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय 

      नई डिजिटल कल्चर 'क्लिक कल्चर' है। 'क्विक' कल्चर है।इसने 'पुसबटन' और इमेज को महान और लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों को खोखला और निरर्थक बनाया है। सम्प्रति टीवी से लेकर फेसबुक तक अनेक संगठन और नेता इसके शैतान खिलाड़ी के रुप में खेल रहे हैं और भारत की मासूम युवा पीढ़ी को इमेजों के जरिए दिग्भ्रमित करने में लगे हैं। 'क्लिक कल्चर' ने युवाओं के विवेक पर सीधे हमला बोला हुआ है।  कहा जा रहा है 'क्लिक ' इमेज ही सत्य है,विचार तो बकबास होते हैं,बोर करते हैं, कमाना मूल्यवान काम है, सोचना फालतू चीज है, व्यवहारवादी बनो, जनवादी मत बनो,  धर्मनिरपेक्षता फालतू चीज़ है, लोकतंत्र में रहो लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों के बिना। लोकतांत्रिक मूल्य तो बोझा हैं, वोट दो, लेकिन विवेकवाद के आधार पर सोचो मत, सार्थक है सिर्फ चुनाव जीतना। इस 'क्लिक कल्चर' के नायक इन दिनों पंडित नेहरु का भी 'क्लिक संस्कार' करने में मशगूल हैं।
     उल्लेखनीय है पंडित जवाहरलाल नेहरु देश के सामान्य प्रधानमंत्री नहीं थे, वे सामान्य राजनेता भी नहीं थे। आमतौर पर लोकतंत्र में नेता आते हैं और जाते हैं।औसत नेता ही लोकतंत्र की संपदा के रुप में नजर आते हैं, भारत में अनेक औसत नेता प्रधानमंत्री बने, लेकिन आधुनिक विचारवान विरल प्रधानमंत्री तो एकमात्र पंडितजी ही थे। वे ऐसे प्रधानमंत्री थे जिनके पास आधुनिक भारत का विज़न था,आधुनिक विचार थे, आधुनिक जीवनशैली थी और इन सबसे बढ़कर अपने विचारों के लिए जोखिम उठाने का साहस था।
      नेहरु को पूजना आसान है, उनकी विरासत को समझना और उनके विचारों की दिशा में जोखिम उठाकर चलना बहुत मुश्किल काम है। खासकर वे लोग जो आधुनिक विचारों, वैज्ञानिक सचेतनता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मर्म से अनभिज्ञ हैं या जो लोग आए दिन इनकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम करते हैं,उनके लिए नेहरु को पाना बेहद मुश्किल है। नेहरु 'क्लिक कल्चर' की देन नहीं थे, वे तो संस्कृति की देन थे। नेहरु को पाने के लिए भारत की संस्कृति के पास जाना होगा। संस्कृति का मार्ग बेहद जटिल और जोखिम भरा है, वह फेसबुक की वॉल पर लिखी 'क्विक' इबारत नहीं है, नेहरु कोई किताब नहीं है, कोई कुर्सी नहीं है या मूर्ति नहीं है जिसके साथ खड़े होकर फोटो क्लिक करो और नेहरु की पंक्ति में शामिल हो जाओ! भारत के प्रधानमंत्री बनने के बावजूद नेहरु की पंक्ति में खड़े होना संभव नहीं है। क्योंकि नेहरु कुर्सी नहीं बल्कि देश का आधुनिक विज़न हैं। नेहरु के आधुनिक विज़न को सचेत रुप से अर्जित करना होगा तब ही सही मायने में नेहरु की रुह को स्पर्श किया जा सकता है। महसूस किया जा सकता है।
     नेहरु को महान जिस चीज ने बनाया वह था जीवन के प्रति उनका विवेकवादी नजरिया। नेहरु के लिए साधन और साध्य एक थे। उन्होंने लिखा है ''शुरु में जिंदगी के मसलों की तरफ़ मेरा रुख़ कमोबेश वैज्ञानिक था, और उसमें उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के शुरु के विज्ञान के आशावाद की चाशनी भी थी। एक सुरक्षित और आराम के रहन-सहन ने और उस शक्ति और आत्म-विश्वास ने, जो उस समय मुझमें था, आशावाद के इस भाव को और बढ़ा दिया था।'' हमारे नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं में एक बड़ा अंश है जो अंधविश्वासी और धर्म का अंधपूजक है। वे धर्म को आलोचनात्मक विवेक की आंखों से देखते ही नहीं हैं। ऐसे अंधपूजक हमारे देश के प्रधानसेवक भी हैं। जबकि नेहरु में ये चीजें एकदम नहीं थीं। नेहरु ने लिखा है, '' मजहब में – जिस रुप में मैं विचारशील लोगों को भी उसे बरतते और मानते हुए देखता था, चाहे वह हिन्दू-धर्म ,चाहे इस्लाम या बौद्ध-मत या ईसाई-मत-मेरे लिए कोई कशिश न थी। अंध-विश्वास और हठवाद से उनका गहरा ताल्लुक था और जिन्दगी के मसलों पर ग़ौर करने का उनका तरीक़ा यक़ीनी तौर पर विज्ञान का तरीक़ा न था। उनमें एक अंश जादू-टोने का था और बिना समझे-बूझे यकीन कर लेने और चमत्कारों पर भरोसा करने की प्रवृत्ति थी।''
  '' फिर भी यह एक जाहिर-सी बात है कि मज़हब ने आदमी की प्रकृति की कुछ गहराई के साथ महसूस की हुई जरुरतों को पूरा किया है और सारी दुनिया में, बहुत ज्यादा कसरत में ,लोग बिना मज़हबी अकीदे के रह नहीं सकते। इसने बहुत-ऊँचे किस्म के मर्दों और औरतों को पैदा किया है, और साथ ही तंग-नज़र और ज़ालिम लोगों को भी।इसने इन्सानी ज़िन्दगी को कुछ निश्चित आंकें दी हैं और अगरचे इन आंकों में से कुछ आज के ज़माने पर लागू नहीं हैं, बल्कि उसके लिए नुकसानदेह भी हैं, दूसरी ऐसी भी हैं, जो अख़लाक़ और अच्छे व्यवहार लिए बुनियादी हैं।"
नेहरु ने लिखा है ''असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस जिंदगी में है, किसी दूसरी दुनिया या आनेवाली जिंदगी में नहीं।'' पंडितजी पुनर्जन्म की धारणा में यकीन नहीं करते थे, अंधविश्वासों के विरोधी थे। दिमागी अटकलबाजी में यकीन नहीं करते थे। वे चीजों, घटनाओं, व्यक्तियों, समुदाय और वस्तुओं को वैज्ञानिक नजरिए से देखने में विश्वास करते थे। उन्होंने माना '' मार्क्स और लेनिन की रचनाओं के अध्ययन का मुझ पर गहरा असर पड़ा और इसने इतिहास और मौजूदा जमाने के मामलों को एक नई रोशनी में देखने में बड़ी मदद पहुँचाई। इतिहास और समाज के विकास के लंबे सिलसिले में एक मतलब और आपस का रिश्ता जान पड़ा और भविष्य का धुंधलापन कुछ कम हो गया।''

1964 में 27 मई को मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू का यश इतिहास की थाती है। उनका अनोखापन बेमिसाल है। नेहरू में दोष भी ढूंढ़े जा सकते हैं। हुकूमत की मौजूदा विचारधारा उनके सिर पापों की गठरी बांध उन्हें गुमनामी में धकेल देना चाहती है।                                  नेहरू विस्मृति के अंधेरे में भी जुगनू की तरह दमकते ही रहते हैं वे अकेले हैं जो दक्षिणपंथ के हमले का शिकार  हैं। आजा़दी की जद्दोजहद में तिलक, गांधी, नेहरू और सुभाष उत्तरोत्तर पड़ाव हैं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद नेहरू ने गांधी का सम्मान करते भी उनकी आदर्शवादिता  को अव्यावहारिकता कहकर ठुकरा दिया। उन्हें कठोर पत्र भी लिखे। उन्होंने गांधी की मुखालफत करते भगतसिंह के पक्ष में करीब आधी कांग्रेस को खड़ा भी किया। सुभाष बोस के साथ भगतसिंह के मुकदमे की पैरवी की।                                          

 उन पर सरदार पटेल के साथ भारत विभाजन का दोष भी थोपा गया। उन्होंने योजना आयोग, भाखरा नांगल, आणविक शक्ति  आयोग, भाषावाद प्रांत, सार्वजनिक उपक्रम, संसदीय तमीज और संविधान की इबारतें नायकत्व की भूमिका के साथ रचीं। कश्मीर समस्या को लेकर उनमें उलझाव बताया गया। पंचशील के मुखिया होने के बावजूद चीन ने दोस्ती और विश्वास  में बहुत बड़ा धोखा दिया। कीमत देश की धरती को चुकानी पड़ी। लोकतंत्र के रहनुमा नेहरू ने अपना व्यक्तित्व कई बार थोपने की कोशिशकी लेकिन बहुमत के आगे मासूमियत से हारते भी रहे। 
कांग्रेस अध्यक्ष बेटी इंदिरा ने केरल की सरकार की बर्खास्ती को लेकर उसे खारिज कर दिया। नेहरू राजेन्द्र प्रसाद को दुबारा राष्ट्रपति बनाने के बदले उपराष्ट्रपति डाॅक्टर राधाकृष्णन को प्रोन्नत करना चाहते थे। कांग्रेस ने बात नहीं मानी। नेहरू अदब से झुक गए। दिल्ली की जनसभा में संचालक ने यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो को पहला पुष्पगुच्छ देने नेहरू को आमंत्रित किया। जवाहरलाल ने चेहरा लाल पीला करते कहा।                                          दिल्ली के नागरिकों की ओर से पहला पुष्पगुच्छ सौंपने का अधिकार महापौर अरुणा आसफ अली को है। यह संस्कारशीलता आज महापौरों को उपलब्ध नहीं है। उन्हें मंत्री, सचिव और आयुक्तों के सामने ऊंची नाक रखने से मना किया जाता है। तपेदिकग्रस्त पत्नी को स्विट्ज़रलैंड के अस्पताल में छोड़ जेलों में जवानी सड़ा दी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान खंदकों में बैठकर हेरल्ड लास्की के फेबियन समाजवाद के पाठ पढ़े। अपनी बेटी को पिता के पत्र के नाम से चिट्ठियों की शृंखला लिखी। । वह इतिहास बन गई ।बेटी देश  की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री बनी और शहीदों  की मौत पाई। नेहरू खानदान पर परिवारवाद का आरोप लगाने वाले यह नहीं कहते।                            जवाहरलाल ने अपना उत्तराधिकारी जयप्रकाश में ढूंढ़ा था, इंदिरा गांधी में नहीं। वे अटलबिहारी वाजपेयी को कांग्रेस में लाने लाने को थे। नहीं चाहने पर भी मुख्यमंत्री रविषंकर शुक्ल के दबाव के कारण छत्तीसगढ़ में भिलाई इस्पात संयंत्र को लाकर प्रदेश को नया औद्योगिक तीर्थ दिया। उनकी किताबों विश्व इतिहास की झलक, भारत की खोज और आत्मकथा की राॅयल्टी से परिवार का खर्चा चलता रहा। 
नेहरू में कवि और दार्शनिक था। उनकी इतिहास दृष्टि में नदियां, हवाएं और तरंगें बहती हैं। नेहरू की गंगा सुदूर अतीत से भविष्य के महासागर तक संस्कारों का सैलाब लिए अनंतकाल तक बहती रहेगी। उनकी गंगा वसीयत से बेहतर वसीयत संसार में कहीं नहीं है। असाधारण बौद्धिक सांसद हीरेन मुखर्जी ने कहा था। मैं ऐसी वसीयत लिखने वाले की हर गलती माफ कर सकता हूं। यहां तक कि खराब सरकार को भी।                                         
           नेहरू ने प्रधानमंत्री नहीं साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की हैसियत से सर्वोच्च सोवियत नेता ख्रुश्चेव को लिखा था। डाॅक्टर जिवागो उपन्यास के लेखक बोरिस पास्तरनाक को रूसी समाज की कथित बुराइयों को उजागर करने के आरोप में अनावश्यक सजा़ नहीं दें। आल्डस हक्सले ने लिखा। जवाहरलाल का व्यक्तित्व गुलाब की पंखुड़ियों से बना है। शुरू में लगता था चट्टानी राजनीति में गुलाब की पंखुड़ियां कुम्हला जाएंगी। लेकिन गुलाब की पंखुड़ियों ने तो पैर जमाने षुरू कर दिए हैं। नेहरू का स्पर्श पाकर राजनीति सभ्य हो गई है। टैगोर ने उन्हें भारत का ऋतुराज कहा था। विनोबा के लिए अस्थिर दौर में सबसे बड़े स्थितप्रज्ञ थे। 
उनके निंदक आज भी फलफूल रहे हैं। शेख अब्दुल्ला को नेहरू का अवैध भाई बताते हैं। उनके पूर्वजों में मुसलमानों का रक्त अफवाहों के इंजेक्शन के जरिए डालते हैं। एडविना माउंटबेटन से उनके संबंधों में मांसलता का वीभत्स देखते हैं। उन्हें काॅमनवेल्थ को कायम रखते हुए कई समझौतों के लिए दोषी करार दिया जाता है। यह सफेद झूठ कहने वाले सर्वोच्च पद पर हैं। नेहरू सरदार पटेल की अंत्येष्टि में नहीं गए थे। निखालिस हिन्दू लगते गांधी, मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, सरदार पटेल, लालबहादुर षास्त्री, राजगोपालाचारी वगैरह कांग्रेसियों की तस्वीरों का संघ परिवार मुरीद है।                             
           नेहरू के सियासी और खानदानी वंशज गाफिल हैं। जवाहरलाल से बेरुख भी हैं। कांग्रेस इस असाधारण बौद्धिक से घबरा या उकताकर मिडिलफेल जीहुजूरियों के संकुल को अपना बौद्धिक विश्वविद्यालय बनाए हुए है। काश!  वे महान क्रांतिकारी भगतसिंह को पढ़ लेते। उसने कहा था मैं देश के भविष्य के लिए गांधी, लाला लाजपत राय और सुभाष बोस वगैरह सब को खारिज करता हूं। केवल जवाहरलाल वैज्ञानिक मानववाद होने के कारण देश का सही नेतृत्व कर सकते हैं। नौजवानों को चाहिए नेहरू के पीछे चलकर देश की तकदीर गढ़ें। नेहरू चले गए। भगतसिंह भी। उस वक्त के नौजवान भी। वर्तमान के ऐसे करम हैं कि नेहरू अब भी उदास हैं।

पंडित नेहरू ने लिखा है-
"आज भी ,जबकि क़ौमियत का ख़याल बहुत बदल गया और तरक्की कर गया है,विदेशों में हिन्दुस्तानियों का गिरोह एक अलग गिरोह समझा जाता है और अपने  और अपने भीतरी भेदों के बाबजूद उन्हें एक गिना जाता है। हिन्दुस्तानी ईसाई चाहे जहां जाय,हिंदुस्तानी ही समझा जाता है,और हिंदुस्तानी मुसलमान चाहे तुर्की में हो,चाहे ईरान और अरब में, सभी मुसलमानी मुल्कों में वह हिंदुस्तानी ही समझा जाता है।"

साभार 

जगदीश्वर चतुर्वेदी ✍️