विशेष कार्यक्रम "कौन बड़का ..सांप कि इंसान?

विशेष कार्यक्रम "कौन बड़का ..सांप कि इंसान?

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय 

स्थान: कल्पना रंगमंच, धरती ग्रह

प्रायोजक: प्रकृति देवी एवं होश की आखिरी बूंद

संचालक: श्री चकमकलाल जी (एक अनुभवी नेवला, अब रिटायर्ड)

 प्रतिभागी:

 1.नागराज कुमार...फनधारी, वनधारी, सर्प-संविधान के अनुयायी

2.मानव भट्ट... टू-लेग्ड टॉक्सिक रियलिटी शो का स्थायी विजेता

 संचालक चकमकलाल: "तो भाइयों और बहनों, आज की बहस का विषय है 'साँप ज़्यादा समझदार या इंसान?' तालियाँ बजायें, जब तक ताली की आवाज़ से कोई साँप भाग न जाए!"

(तालियों की गूँज… नागराज कुमार मंच पर फिसलते हुए आते हैं, गरिमामय ठाठ में।)

 नागराज कुमार (माइक सम्हालते हुए):

"सबसे पहले, मैं उस दूध का विरोध करता हूँ जो मुझे हर साल नागपंचमी पर जबरदस्ती पिलाया जाता है वो भी इस भरोसे पर कि मैं कहीं तुम्हारे बिगड़े काम को बनाता फिरूंगा!

भाई लोग, हमारे खानदान में कोई भी दूध पीकर बड़ा नहीं हुआ...हम शिकार करते हैं, शिकार पीते हैं। मगर तुम इंसानों ने हमको बना दिया 'पारले-गोल्ड' वाला नाग! हाथ जोड़के कह रहा हूँ....'दूध ना पिलाओ, थोड़ी डिग्निटी पिलाओ!'"

 मानव भट्ट (खंखारते हुए):

"लेकिन नागराज जी, आपमें ज़हर होता है…आप डरावने लगते हैं!"

नागराज कुमार (साँपों वाली ठंडी मुस्कान लिए):

"अरे बाबू भट्ट जी, हमारे अंदर ज़हर तो होता है, मगर बाहर मुस्कान भी होती है..तुम्हारे तो उल्टा है!

हम एक बार में डसते हैं, तुम धीरे-धीरे, ई.एम.आई. में ज़हर चुकाते हो। हम फुफकारते हैं तो मतलब होता है...तुम चुप रहकर भी छुरा घोंप देते हो!

हमने आज तक ना जात पूछी, ना धर्म देखा...शिकार मतलब शिकार। तुमने तो साँस लेने से पहले भी पूछा 'तुम किस पार्टी के हो?'"

मानव भट्ट (थोड़ा पसीने में):

"तो हम आपसे डरें भी नहीं?"

 नागराज कुमार:

"डर तब लगे जब साँप WhatsApp चलाने लगे। हमने कभी 'मणि मिली नागिन से' जैसी फ़ेक न्यूज नहीं फैलाई। तुम्हीं हो जो कहते हो 'नाग बदला लेता है!' अरे हम साँप हैं, कोई टी.वी. सीरियल नहीं! ना मणि है, ना बदला..बस जंगल है, और थोड़ा-सा चैन चाहिए!"

संचालक चकमकलाल (नेवले की मुस्कान के साथ):

"वाह वाह! अब मानव भट्ट जी, आप कहिए क्या बचा है आपके पक्ष में?"

मानव भट्ट (अब शरमाते हुए):

"हम मानते हैं, हमने अंधविश्वास की प्लास्टिक चढ़ाकर..तुम्हें पवित्र भी बना दिया और खतरनाक भी। हमने ही तुम्हारी बीन बनाई, और फिर तुम्हारी पूँछ काटी!"

नागराज कुमार:

"बीन की बात चली है तो सुन लो, हमारे कान नहीं होते, पर तुम जो हल्ला करते हो ना वो धरती तक काँपती है। मतलब ये कि तुम्हारे 'रियल' से हम 'रिएक्ट' करते हैं। 

हम नाचते नहीं हैं, हम बचते हैं!"

संचालक चकमकलाल:

"अंतिम सवाल 'कौन अधिक उपयोगी?'"

नागराज कुमार (शांत होकर):

"हम ज़हर देकर भी दवा बनते हैं, तुम चीनी बनाकर भी बीमारी फैलाते हो। हम जंगल बचाते हैं, तुम जंगल बेचते हो। हम कम बोलते हैं, तुम ज़्यादा काटते हो!"

(भीड़ मौन… हवा थम-सी गई)

मानव भट्ट (गर्दन झुकाकर, रुक-रुक कर):

"मैं आज स्वीकार करता हूँ कि मेरे भीतर ज़्यादा साँप पलते हैं,

तुम बस फन उठाते हो, हम ज़हर बोते हैं। तुम जंगल से आए, हमने जंगल छीन लिया। तुमने कभी साज़िश नहीं की, हमने सभ्यता के नाम पर सब कुछ बेच दिया।"

नागराज कुमार (जीवन की भाषा में):

"हम मिट्टी में रहते हैं, मगर मिट्टी नहीं बेचते। हम ज़हर में रहते हैं, मगर उसे नफरत में नहीं उड़ेलते। हम जानवर हैं..तुम्हारे जंगल में आखिरी सभ्य प्राणी। अब फैसला तुम्हारा है कि हमें बचाओगे, या खुद को?"

संचालक चकमकलाल (धीमे स्वर में, मगर भीतर आग लिए):

"अब ये मत पूछिए कि साँप ज़्यादा ज़हरीला है या इंसान, क्योंकि एक जंगल बचाता है, दूसरा उसे काटकर ट्वीट करता है।

आज इस मंच पर किसी ने सिर्फ बात नहीं रखी...अपना फन नहीं, फर्ज उठाया। और किसी ने पहली बार अपना ज़हर पी लिया शब्दों के गिलास में।

तो तय मानिए कि आज साँप नहीं, संवेदना जीती है।

और अगर ये बात अब भी नहीं समझी तो अगली बार मंच पर

ना साँप होंगे, ना नेवले…बस एक ख़ाली जंगल होगा जहाँ इंसान अकेला ताली बजा रहा होगा।"

[ध्वनि प्रभाव: धीमे फुफकार की लय में पत्तों की सरसराहट… मंच अँधेरे में डूबता है]

साभार 

सौरभ चतुर्वेदी ✍️ 

बलिया 

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