हिंदी दिवस विशेष : हिंदी ‌‌‌नारेबाजी ‌‌‌‌‌‌‌‌‌नहीं‌ चाहती वह हमसे प्रेम चाहती है_ डॉ. राघवेन्द्र नारायण

हिंदी दिवस विशेष : हिंदी ‌‌‌नारेबाजी ‌‌‌‌‌‌‌‌‌नहीं‌ चाहती वह हमसे प्रेम चाहती है_ डॉ. राघवेन्द्र नारायण

‌रिपोर्ट- प्रेम शंकर पाण्डेय ✍️

हिंदी दिवस पर विशेष ---------

हर हिन्दी दिवस की तरह आज भी बड़ी बड़ी बातें होंगी,हिन्दी में काम करने के लिए सिफारिशें होंगी,लेकिन यह भी सत्य है कि हिन्दी की वृद्धि के लिए केवल होठों को हिलाने की खानापूर्ति होगी। हिन्दी के विकास के लिए जरूरी है कि हम हिन्दी में काम करें लेकिन हिन्दी में छप रही पुस्तकों का अध्ययन करें। हिन्दी की पुस्तकों को क्रय करें, भेंट दें और लोगों को शुद्ध हिन्दी बोलने लिखने के लिए प्रोत्साहित करें। एक लेखक के तौर पर मैं कह सकता हूँ कि हम हिन्दी के प्रति केवल जुबानी प्रेम रखते हैं। जरा सोचिए,आपके घर में कितनी हिन्दी की पुस्तकें हैं! आप किन अच्छे लेखकों की पुस्तकें अपने घर में रखते हैं या बच्चों को पढ़ने के लिए देते हैं!हम लोगों का हिन्दी प्रेम केवल ढकोसला ही है। हिन्दी की समृद्धि के लिए हमें उसके लेखकों का सम्मान करना भी सीखना होगा। और यह सम्मान केवल चन्द पुरस्कारों की स्थापना से नहीं होगा, वरन इसके लिए हिन्दी के लेखकों को भी वही सम्मान मिलना चाहिए जो यूरोप अमरीका जैसे देशों के लेखकों को स्वत: मिलता है । लेखक पुरस्कार के लिए नहीं लिखता है ,वह अपनी मातृभाषा की श्रीवृद्धि के लिए लिखता है, वह इसको अपना कर्तव्य समझकर लिखता है, वह अपनी मातृभाषा को सतत प्रवाहशील बनाने के लिये लिखता है, वह अपनी अन्तरात्मा की पुकार पर लिखता है जैसे कोई फूल किसी को खुश करने के लिए नहीं खिलता वरन वह स्वभावतः डाली पर निकलकर झूमने लगता है, खुशबू बिखेरने लगता है। हम जन्मदिवस पर हजारों रुपये का केक काटते हैं लेकिन बच्चे को कोई सुन्दर पुस्तक भेंट करने की कभी नहीं सोचते। पुस्तकें स्थाई मित्र होती हैं। केक का जीवन चन्द लम्हे का होता है पर पुस्तक की जिन्दगी जीवनकाल के बाद तक की भी होती है। एक पुस्तक खरीदकर आप अपने बच्चे को संस्कार भी देते हैं। आप उसके भीतर मनन चिन्तन के बीज भी अंकुरित करते हैं। आप उसे संवेदनशील मनुष्य बनने में सहायक बनाते हैं। पुस्तकें केवल कागज के पन्ने नहीं होतीं वरन वे ज्ञान विज्ञान की अमूल्य दस्तावेज होती हैं जिनको एक पीढ़ी दूसरे पीढ़ी को हस्तान्तरित करती है । हिन्दी केवल भाषा ही नहीं है वह हमारी पहचान है। अपनी भाषा की समृद्धि करने से हम समृद्ध होते हैं उसको हीन बनाने से हम स्वयमेव हीन होते हैं। हिन्दी हमारे संस्कारों की भाषा है। वह राष्ट्रीय एकसूत्रता की भाषा है। हिन्दी अंग्रेजी की विरोधी नहीं है, वह तो अपनी मिट्टी में उगी हुई वह बेल है जिसकी हरियाली हमारे मन मस्तिष्क को ताजगी से भर देती है। वह हमारे अन्तर्मन की भाषा है। भौतिकता के इस युग में भाषा को संरक्षण देने का कार्य लेखकों पर ही निर्भर हो गया है। यदि हम भाषा को मरने और भ्रष्ट होने से बचाना चाहते हैं तो हमें हिन्दी के प्रति अपनी दृष्टि बदलनी होगी।यदि हम यान्त्रिक मनुष्य नहीं चाहते तो हमें पुस्तक पढ़ने की आदत डालनी होगी। हम वीडियो गेम्स के स्थान पर बच्चे को अच्छी पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित करें। हम महीने में एक हिन्दी की पुस्तक अवश्य खरीदें। हिन्दी में निवेश करना होगा। हिन्दी नारेबाजी नहीं चाहती वह हमसे प्रेम चाहती है। याद कीजिए भारतेन्दु जी को । उन्होंने कहा था निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल और उनके ही शब्द हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान हमें नहीं विस्मृत करने चाहिए। जय हिन्दी जय भारत!

© डॉ.राघवेन्द्र नारायण ✍️

प्रबंध निदेशक राजेश्वरी महिला महाविद्यालय

,हरहुआ(वाराणसी) १४/९/२०२०