जानकारी विशेष : रमज़ान का खजूर और रमादान की गुठली

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय
रमज़ान शुरू हो गया है. मुस्लिम समाज रोज़े से है. सहरी और इफ़्तार के दौर चल रहे हैं. तराबीह पढ़ी जा रही है. शुद्धता पर ध्यान है. बाज़ारों में रौनक़ है. इन सारी तैयारियों के दौरान एक नियम और अनुशासन बना हुआ है. व्रत है. व्रत के नियम हैं. व्रत का तरीक़ा है. और तरीक़े का पालन करने की कोशिश में लगे लोग हैं. रमज़ान दरअसल आत्म नियंत्रण, दूसरों की मदद और आत्मशुद्धि का महीना है. परहित की बात भारतीय वांग्मय भी करता है. इस दफ़ा तो जिस रोज़ रमज़ान ख़त्म हो रहा है, उसी दिन से नवरात्र भी शुरू हो रहा है. दोनों आयोजनों के केन्द्र में ईश्वर के प्रति आस्था, आत्मनियंत्रण और परहित है. रमज़ान की शुरुआत के साथ ही ये बहस भी शुरू हो गई कि रमज़ान मुबारक कहा जाए या रमादान मुबारक. सब दुविधा में हैं. रमज़ान के बरक्स यकायक यह रमादान कहाँ से आ गया.
मैंने एक मित्र को रमज़ान की मुबारकबाद दी तो उन्होंने पलटकर कहा रमज़ान नहीं, रमादान कहिए. मैंने कहा इस पचड़े में कौन पड़े, रोज़े की मुबारकबाद ही ले लीजिए. बचपन से मैं इसे रोज़ा ही कहता-सुनता आ रहा हूँ. चार सौ साल पहले कबीर दास भी इसे रोज़ा ही कहते थे- ‘दिनभर रोज़ा रहत हैं. रात हनत हैं….
मैंने कहा, आप चाहें तो तीनों का इस्तेमाल कर सकते हैं. रमादान कहिए या रमज़ान, दोनों सही हैं. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि रमज़ान उर्दू शब्द है जो फ़ारसी से उर्दू में आया है जबकि रमादान अरबी शब्द है. अरबी में रमादान का मतलब है अत्यधिक गर्मी, ये अरबी शब्द रम्दा से निकला है जिसका अर्थ होता है धूप में पका हुआ. व्यवहारिक आशय हुआ तपा हुआ यानी व्रत और नियम में तपना. 'रमज़ान' शब्द अरबी मूल 'रमिदा' या 'अर-रमद' से आया है जिसका अर्थ है चिलचिलाती गर्मी या सूखापन है. यह उपवास अपने को शुद्ध करने के इरादे से किया जाता है जो आपके पिछले पापों को धो देता है. जैसे कुंभ में नहाने से जन्मों के पाप धुल जाते हैं.
फ़ारसी और उर्दू में ‘द’ की जगह ‘ज़’ का इस्तेमाल होता है. रमादान शब्द का इस्तेमाल 1980 के दशक में शुरू हुआ. तब इस्लामिक क्रांति के चलते खाड़ी देशों में काम करने वाले पाकिस्तानी अपने वतन लौटने लगे थे. यह वह दौर था जब पाकिस्तान में सैन्य शासक जनरल ज़िया उल हक़ की सरकार थी. देश पर सऊदी प्रभाव बढ़ने लगा. हिंदुस्तान मे भी बड़ी संख्या में लोग सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों में काम करते हैं. वे उपार्जित व्यवहार में रमज़ान को रमादान कहने लगे. ऐतिहासिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान इस महीने को रमज़ान कहते आए हैं. बीते एक दशक से रमज़ान के स्थान पर रमादान कहने का चलन बढ़ा है. इसकी एक वजह ईरान की धार्मिक क्रांति के बाद अरब मुल्कों में बढ़ी कट्टरता भी है. उससे लोग अरबी रवायतों की ओर लौटे. रमज़ान, रमादान हो गया. ख़ुदा हाफ़िज़, अल्लाह हाफ़िज़ हुआ.
प्राचीन अरब में ‘द’ का उच्चारण जिस तरह से होता था, वैसा कोई उच्चारण ना तो हिन्दी में है और न ही अंग्रेज़ी में. भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान रमादान में ‘द’ उच्चारण करते हैं, जबकि उपमहाद्वीप के बाहर पश्चिमी देशों के मुसलमान ‘द’ का उच्चारण ‘ड’ करते हैं. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ लैंग्वेज एण्ड लिंग्विस्टिक्स की एक स्टडी के मुताबिक़, कुरान को आज अरबी उच्चारण के साथ पढ़ने वाले भी उसका पूरी तरह से सही उच्चारण नहीं करते. इसका कारण है समय के साथ भाषा और उच्चारण में आया बदलाव. सामान्य तौर पर यह हर भाषा में होता है. जैसे, ब्रिटेन और अमेरिका की अंग्रेज़ी अलग-अलग है. लेकिन है अंग्रेज़ी ही.
इस रिपोर्ट को आधार पर तो अगर हम रमज़ान को सही न मानकर रमादान कह रहे हैं तो यह भी सटीक इस्तेमाल नहीं है. हम इसका सही उच्चारण नहीं कर रहे हैं. भारतीय इस्लाम की जड़ें फ़ारसी संस्कृति में हैं. केरल को छोड़ दें तो भारतीय इस्लाम मूल रूप से अरब के बजाय मध्य एशिया और ईरान से आया है. लम्बे अरसे तक भारत में फ़ारसी प्रमुख भाषा रही. आज हिन्दी, मराठी और बांग्ला में फ़ारसी के कई शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं. दिलचस्प यह कि हमारे देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली ‘हिन्दी’ को यह नाम फ़ारसी से मिला है.
हमारी सहयोगी पत्रकार सुमैरा ख़ान कहती हैं कि रमज़ान और 'रमादान' शब्दों में 'ज़ुआद' अक्षर के उपयोग से अन्तर सामने आता है. उर्दू में ज़ ध्वनि और अरबी में द ध्वनि या 'दुआद' है. अरबी लिपि में, 'रमज़ान' में ज़ुआद एक कठोर व्यंजन द ध्वनि बन जाता है, जबकि फ़ारसी-उर्दू उच्चारण एक नरम व्यंजन ज़ ध्वनि से निकलता है. रमज़ान की तरह रोज़ा शब्द भी फ़ारसी से आया है जो रोज़ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है दिन या दैनिक. रोज़ा के लिए कुरान में मूल शब्द sawm है जिसका अर्थ है चीज़ों से परहेज़ करना. दक्षिण एशिया, तुर्की, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में, उपवास को रोज़ा/रोजा/रूज़ा/ओरु कहा जाता है, ये सभी शब्द फ़ारसी से निकले हैं. मलेशिया, ब्रुनेई और सिंगापुर में मुसलमान उपवास को 'पूसा' कहते हैं, जो संस्कृत शब्द 'उपवास' से निकला प्रतीत होता है. 'पूसा' का इस्तेमाल दक्षिण पूर्व एशिया, इंडोनेशिया, दक्षिणी थाईलैंड और दक्षिणी फ़िलीपींस के कुछ हिस्सों में भी किया जाता है.
वैसे अरबी भाषा में कुछ ध्वनियाँ नहीं होतीं जैसे ‘प’, इसलिए पेपसी को अरबी में बेबसी कहते हैं. जैसे ‘व’ वाइन अरबी में फ़ाइन हो जाता है. ng जैसे सिंग नहीं होता. ‘थ’, thin नहीं होता उसे अरब सिन कहते हैं ,
‘j’(as in ‘jeans’), and the vowel ‘o’ भी अरबी में नहीं होता. इसीलिये अरबों ने "पारसी" को "फ़ारसी" बना दिया. ‘ए’ और ‘ओ’ अरबी में नहीं हैं. जो अरबी में अ होता है उसे फ़ारसी से प्रभावित लोग ऐ कहते हैं.
इसीलिये अमीर का ऐमेर हो जाता है. यानी जो अरबी में इ होता है वो फ़ारसी में ए हो जाता है. इसीलिए अरबी शब्द इंतिज़ार फ़ारसी और उर्दू में इंतेज़ार, और इब्तिदा/इंतिहा उर्दू में फ़ारसी के प्रभाव की वजह से इब्तेदा/इंतेहा हो जाते हैं. ऐसे ही लादिन् का लादेन् हो जाता है. जो अरबी में उ होता है वो फ़ारसी में ओ बन जाता है. इसीलिए हिंदुस्तान का हिंदोस्ताँ हो जाता है. अरबी में उसामा बिन लादिन् ही है. इसका फ़ारसीकरण कर इसे ओसामा बेन लादेन बनाया गया.
अरबी और फ़ारसी की लिपि एक है, इसलिए बहुत लोग इन्हें एक जैसा समझते हैं. मगर अरबी Semitic भाषा है जबकि फ़ारसी की मूल भाषा अवेस्ता indo-European भाषा है. संस्कृत और फ़ारसी बहनें हैं जबकि अरबी एकदम पराई थी. अरबों ने पारसियों पर विजय हासिल की और फिर पारस और पारसी का ऐसा अरबीकरण और इस्लामीकरण हुआ की फ़ारसी संस्कृत के बजाए अरबी की बहन लगने लगी.
इस्लाम का संदेश दुनियाभर में फैलाने वाले पैग़ंबर मोहम्मद साहब का जन्म अरब के मक्का शहर में 570 ईसवी में हुआ. पैग़ंबर मोहम्मद ने इस्लाम धर्म का उपदेश देना सन् 610 ईसवी में शुरू किया, लेकिन उस समय तक रमज़ान के महीने में रोज़े नहीं रखे जाते थे. पैग़ंबर मोहम्मद और उनके अनुयायी सन् 622 ईसवी में मक्का शहर छोड़कर मदीना चले आए. इसी साल उन्होंने ईद-उल-फ़ित्र (ईद) और ईद-उल-अज़हा (बकरीद) मनाने का उपदेश दिया. मुसलमान मानते हैं कि मदीना आने के दो साल बाद सन् 624 ईसवी में ईश्वर की ओर से पैग़ंबर मोहम्मद को रमज़ान के पूरे महीने में रोज़े रखने का आदेश हुआ. आयत नाज़िल हुई.
इस्लामी इतिहास के अनुसार, इसी महीने में मुसलमानों ने पहला युद्ध लड़ा था, यह युद्ध सऊदी अरब के बद्र शहर में हुआ. इसलिए उस युद्ध को जंग-ए-बद्र भी कहा जाता है. ईद मनाने की दो बड़ी वजहें हैं. पहली जंग-ए-बद्र में जीत हासिल करना. यह जंग 02 हिज़री 17 रमज़ान के दिन हुई थी. यह इस्लाम की पहली जंग थी. इस लड़ाई में एक तरफ़ 313 निहत्थे मुसलमान थे. वहीं, दूसरी ओर तलवारों और अन्य हथियारों से लैस दुश्मन की एक हज़ार से ज़्यादा फ़ौज थी. इस जंग में पैग़ंबर हजरत मोहम्मद की अगुआई में मुसलमान बहुत बहादुरी से लड़े और जीत हासिल की. इस जीत की ख़ुशी में मिठाइयाँ बँटीं और एक-दूसरे से गले मिलकर मुबारकबाद दी गई. ईद मनाने के मूल में यह घटना भी है.
इस्लाम के 5 मूल स्तम्भ हैं. इसमें शहादा, नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज शामिल हैं.
- शहादा: मुसलमानों को यह मानना चाहिए कि अल्लाह के अलावा कोई ईश्वर नहीं है और मोहम्मद अल्लाह के दूत हैं.
- नमाज़: मुसलमानों को दिन में पाँच बार कुरान की आयतें पढ़नी चाहिए.
- रोज़ा: मुसलमानों को रमज़ान के महीने में दिन के समय भोजन नहीं करना चाहिए.
- ज़कात: मुसलमानों को अपनी संपत्ति का एक हिस्सा ग़रीबों को देना चाहिए.
- हज: मुसलमानों को पवित्र शहर मक्का की यात्रा करनी चाहिए.
रमज़ान के दौरान रोज़ा रखना इस्लाम की इन्हीं पाँच मूलभूत बातों में एक है. जो इस बात का आधार है कि मुसलमानों को अपना जीवन कैसे जीना चाहिए. रमज़ान मुस्लिम वर्ष का नौवाँ महीना है. अंग्रेज़ी में रमज़ान शब्द का सबसे पहला रिकॉर्ड 15वीं शताब्दी के अंतिम दशक में मिलता है. यह महीना उपवास का पर्याय है क्योंकि यह इस्लामी कैलेंडर के सबसे पवित्र महीनों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि वर्ष 610 में लैलत अल-क़द्र यानी "शक्ति की रात" जब मक्का शहर में फ़रिश्ते गेब्रियल (जिब्रील) द्वारा पैग़ंबर मोहम्मद को पहली बार कुरान नाज़िल हुई तो वह रमज़ान का महीना था. लैलत अल-क़द्र उस रात की याद दिलाता है जब ईश्वर ने पहली बार अपना वचन प्रकट किया था. कुरान के रूप में ये संदेश पैग़ंबर मोहम्मद को फ़रिश्ते गेब्रियल (जिब्रील) के ज़रिए भेजा गया था. यह घटना रमज़ान की आखिरी 10 रातों में से एक रात को हुई थी. यह कैलेण्डर चन्द्रमा के चक्र पर आधारित है. इसमें ग्रेगोरियन कैलेण्डर के 365 दिनों के बजाय 354 या 355 दिन होते हैं. इसलिए रमज़ान हर साल 11 रोज़ पीछे चला जाता है.
कुरान के 114 अध्याय हैं. माना जाता है कि ये अल्लाह या ईश्वर के शब्द हैं. इसमें रमज़ान का महत्व स्पष्ट है. इसमें कहा गया है कि अनुयायियों को रमज़ान के महीने में नए चाँद के पहली बार दिखाई देने पर अल्लाह की महिमा के लिए उपवास करना चाहिए ताकि कुरान के अवतरण की याद में इसे याद किया जा सके. कुरान की सूरह अल-बकराह की आयतें 183 से 187 में रमज़ान में रोज़ा रखने की अनिवार्यता का ज़िक्र है. इन आयतों में रमज़ान से जुड़ी अहम बातें बताई गई हैं.
हर साल, दुनिया भर में 29 या 30 दिनों तक सुबह से शाम उजाले का उपवास रमज़ान कहा जाता है. यह परम्परा कुरान से चली आ रही है. रमज़ान इस्लाम के लिए सबसे महत्वपूर्ण महीनों में एक है. ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार इसकी तारीख़ हर साल बदलती है.
रमज़ान के दौरान मुसलमान तीन प्रकार की इबादत का पालन करने की कोशिश करते हैं. यह इस्लामी आस्था के पाँच स्तम्भों में से तीन हैं. पहला है सवाम, यानी उपवास. पूरे महीने के दौरान ज़्यादातर मुसलमान सुबह से शाम तक खाने-पीने से परहेज़ करते हैं. दूसरा है ज़कात, यानी दान. उन्हें रमज़ान के दौरान अपनी सालाना आय का 2.5% दान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. तीसरा है सलात, यानी नमाज़ या प्रार्थना करना. मुसलमानों को दिन में पाँच बार प्रार्थना करने को कहा गया. परम्परागत रूप से, कई लोग अतिरिक्त सामुदायिक प्रार्थनाओं में भी शामिल होते हैं, जिन्हें तरावीह के रूप में जाना जाता है, जो हर शाम की जाती है.
ऐसा माना जाता है कि रमज़ान का पहला उपवास 624 ई. में हुआ था, जब पैग़ंबर मोहम्मद ने मदीना के निवासियों को अपना भोजन त्यागने के लिए प्रेरित किया था, ताकि वे उसे मक्का से उनके पीछे आने वाले भूखे उपासकों को दान कर सकें. मुसलमानों को रमज़ान के महीने में पूरी कुरान पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. यह आध्यात्मिक ध्यान और गहन चिन्तन का समय है. जिस साल रोज़ा को फ़र्ज़ (अनिवार्य) बनाया गया था उसके दो साल पहले वर्ष 622 में इस्लाम के नबी मक्का से सहाबियों (अपने साथियों) को लेकर मदीना चले गये थे. इस्लाम में इसे हिजरत कहा जाता है. हिजरत की तारीख़ से ही मुसलमानों के वर्ष की गिनती हिजरी शुरू की गई.
क़ुरान की जिस आयत (श्लोक) के ज़रिये रोज़ा को फ़र्ज़ किया गया है, उसमें कहा गया है कि पहले की जाति समूह पर भी रोज़ा फ़र्ज़ था. साफ़ है कि विभिन्न जातियों में पहले से ही रोज़ा रखने का प्रचलन था, हालाँकि सम्भवत: उसका स्वरूप अलग था. मसलन यहूदी अब भी रोज़ा रखते हैं, कई अन्य जातियों में भी ऐसी परम्परा है. उस समय मक्का या मदीना में रहने वाले लोग कुछ ख़ास तारीख़ों पर ही रोज़ा रखते थे. कई लोग आशूरा यानी मोहर्रम महीने की दसवीं तारीख़ को रोज़ा रखते थे. इसके अलावा कुछ लोग चन्द्र मास की 13, 14 और 15 तारीख़ को रोज़ा रखते थे.
भारत में रमज़ान के दौरान इफ़्तार दावतों (रोज़ा खोलने का सामूहिक भोज) का दौर बीसवीं सदी के सातवें दशक में शुरू हुआ. पहले यह आयोजन धार्मिक समरसता के लिए था. पर बाद में यह राजनैतिक दलों के कैलेण्डर में शामिल हो गया. इफ़्तार राजभवनों और मुख्यमंत्री आवासों का सालाना आयोजन बना. राजनैतिक तौर पर इफ़्तार दावतों की शुरुआत लखनऊ से हेमवती नंदन बहुगुणा ने की थी. लखनउव्वा लोगों में इफ़्तार दावतें उनके समाज जीवन का हिस्सा होती थीं. मैं भी अपने दफ़्तर में मुस्लिम सहयोगियों को इफ़्तार दावत कराता हूँ ताकि कुछ पुण्य लाभ कमा लूँ. इफ़्तार से पहले वे इफ़्तार की दुआ पढ़ते हैं. “अल्लाह हुम्मा लका समतू व बिका आमंतु व अलइका तवक्कलतु व आला रिज़किका अफ़्तरतु”. मैंने कहा हमारे यहाँ भी भोजन से पहले भोजन का मंत्र है- “ॐ सहनाववतु. सह नौ भुनक्तु. सह वीर्यं करवावहै. तेजस्विनावधीतमस्तु, मा विद्विषावहै.
दफ़्तर में हम लोगों ने भोजन का मंत्र पढ़ कर इफ़्तार शुरू किया. रोज़े से रहने वाले मेरे एक सहयोगी ने मशहूर शायर साग़र ख़य्यामी के बेटे हसन रशीद के हवाले से एक क़िस्सा सुनाया. घटना अरबी और उर्दू शब्दों के संयोग पर आधारित थी. वहाँ भी यही विवाद कि रमज़ान कहें या रमादान. विचित्र बहस इसलिए थी क्योंकि अर्थ का अनर्थ हो रहा था. उन्होंने बताया, "रमज़ान में मेरे पड़ोसी ज़िया साहब हाथों में बड़े-बड़े, सामान से भरे थैले लिए जा रहे थे. चाँद रात थी. जैसे ही वे मेरे सामने से गुज़रे, मैंने कहा, “ज़िया साहब, रमज़ान मुबारक”. ज़िया साहब झट से रुके. मुझे पास बुलाया और सख़्त लहजे में बोले, “आप तो पढ़े-लिखे मालूम होते हैं”. “जी हुज़ूर कुछ तो पढ़ाई की है,” मैंने भी सर झुका के जवाब दिया. ज़िया साहब कहने लगे, “रमादान होता है सही लफ़्ज़, रमज़ान नहीं, अरबी का लफ़्ज़ है अरबी की तरह बोला जाना चाहिए.”
मैंने सिर झुकाकर अपनी ग़लती कुबूल कर ली और कहा, 'आप सही कह रहे हैं धिया साहब’. ज़िया साहब फ़ौरन चौंके. कहने लगे “ये धिया कौन है”. मैंने कहा, 'आप'. ‘कैसे भई मैं तो ज़िया हूँ...' मैने कहा, 'जब रमज़ान रमादान हो गया तो फिर ज़िया भी तो धिया हो जाएगा. ये भी तो अरबी का लफ़्ज़ है! ज़्वाद का तलफ़्फ़ुज़ ख़ाली रमादान तक क्यों महदूद हो!' अब तो ज हर कहीं ध होगा. ख़ैर! बात ख़त्म हुई. ज़िया साहब जाने लगे तो फिर मैंने पीछे से उन्हें टोक दिया, "कल इफ़्तारी में बकोड़े बनवाइएगा तो हमें भी भेज दीजिएगा”. जिया साहब फ़ौरन फड़फड़ा के बोले “ये बकोड़े क्या चीज़ है”. मैंने कहा, “अरबी में ‘पे’ तो होता नहीं तो पकोड़े बकोड़े ही तो हुए. पेप्सी भी बेब्सी ही बोली जाएगी.” ज़िया साहब एकदम ग़ुस्से में आ गए “तुम पागल हो गए हो.” मैंने कहा, “पागल नहीं बागल बोलिए, अरबी में प नहीं ब होता है. तो बागल ही हुआ.” अब ज़िया साहब बेहद ग़ुस्से में आ गए. कहने लगे, अभी चप्पल उतार के मारूंगा. मैंने कहा, “चप्पल नहीं शप्पल” कहिए. अरबी में 'च' भी नहीं होता. ज़िया साहब का पारा सातवें आसमान पर था कहने लगे, “अबे गधे बाज़ आ.” मैंने कहा, “बाज़ तो मैं आ जाऊंगा, मगर गधा नहीं जधा कहिए, अरबी में ‘ग’ भी नहीं होता.” अब वो क्रोध से किटकिटाए. तेज़ आवाज़ में चीख़े, “तो आख़िर अरब में होता क्या है?” हम भी कम नहीं थे. कह दिया, “आप जैसे शूतिया”. ज़िया साहब एक पल के लिए रुके. 'शूतिया' जी अरबी में 'च' भी नहीं होता. फिर बात समझ आते ही जूते पटकते हुए वहाँ से रुख़्सत हो लिए.
इस क़िस्से के साथ हमारा इफ़्तार तो ख़त्म हो गया. मगर वह बात कहाँ ख़त्म होती. ऐसे ही नहीं लिखा गया है कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी. ज़िया साहब तो चले गए. पर अपने पीछे बहस छोड़ गये. काफ़ी देर तक सोचते हुए मुझे उन भाषाविदों की याद आई जो ये मानते हैं कि हिंद-आर्य भाषाओं की 'स' ध्वनि ईरानी भाषाओं की 'ह' ध्वनि में बदल जाती है. यही वजह है कि आज भी भारत के कई इलाकों में 'स' को 'ह' उच्चारित किया जाता है. इसी कारण सप्त सिंधु पारसियों की भाषा में घुलकर हप्त हिंदू में परिवर्तित हो गया. पारसियों का धर्मग्रंथ अवेस्ता इसका प्रमाण है. इसीलिए ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया. तो ये शूतिया भी उर्दू अरबी की इसी गड्डमड्ड का नतीजा है. शूतिया का हिन्दी वर्जन चूतिया हमारे समाज में बहुत ही प्रचलित है. किसी जमाने में इसे गाली मानते थे. पर अब यह शहरी अभिजात्य का मैनरिज़्म है. हमारे यहाँ गालियों का भी अपना समाज है. गालियाँ किसी भी समाज और भाषा का एक विवादित किंतु जीवंत हिस्सा हैं. ख़ैर, गालियों पर बात फिर कभी. लेकिन ज़िया साहेब का घिया हो जाता, इफ़्तार का मनोरंजन बन गया.
भाषा के सामाजिक वजूद की बहस में एक बात बहुत ज़रूरी है जो समझनी चाहिए. भाषा की किसी भौगोलिक शुद्धता को किसी दूसरे भौगोलिक समाज पर लादना तर्कसंगत नहीं है. भाषा इससे कुंठित होती है, क्योंकि समाज के लिए वो असहज हो जाता है. असहज भाषा अपनी पकड़ खो देती है. पकड़ के लिए सहजता ज़रूरी शर्त है. इसलिए किसी भाषा के मूल उच्चारण को लेकर हठी नहीं होना चाहिए और अलग भौगोलिक सच्चाइयों, सीमाओं और व्यवहारों का सम्मान बना रहना चाहिए. दक्षिण में हिन्दी बोलने वाले व्यक्ति का उच्चारण बंगाल या बिहार या पंजाब की हिन्दी से भिन्न होता है. लगभग सभी राज्यों में हिन्दी का एक फ़्लेवर है. तमिल का तोसए हिन्दी में दोसा बन जाता है. इसे डोसा भी कह लिया जाता है. इडली को तो आधा बनारस इटली बोलता है. बांग्ला में अकार अक्षरों के लिए ओ या औ का उच्चारण मिलता है. बिहार में र और ण या ड़ की उच्चारण विविधता है. वहाँ कई लोगों के लिये ‘घोरा सरक पर दौरता है’. लेकिन ये उपहास या आलोचना का विषय नहीं हो सकता. भाषा का उच्चारण कोई भी व्यक्ति अपने भौगोलिक व्यवहार के अनुसार करता है. ये उसका चयन कम, समाज से सीखा और प्राप्त किया व्यवहार अधिक है.
मेरा मानना है कि रमज़ान के रमादान बनने में धार्मिक कट्टरता और शुद्धता का कारण ज़्यादा बड़ा है. ये कारण भाषा के समाज और व्यवहार को नकारते हैं. ये जायज़ माँग नहीं है. रमज़ान के और रमादान के मूल में पर्व एक है, नियम एक है, कारण एक है, तरीका एक है, संदेश एक है. इस संदेश को ही मूल में रहना चाहिए, उच्चारण को नहीं. कैसे बोला और क्या बोला का पूर्वाग्रह कहीं भी उचित नहीं है. फ़्रांस और नॉर्वे के लोग या जर्मन और इतालवी लोग भी बर्तानिया की तरह या अमेरिका जैसी अंग्रेज़ी बोलें, ऐसी शर्त या बहस सम्भव ही नहीं है. इसकी वजह यह है कि इन देशों के लोगों को अपनी भाषा, उच्चारण और व्यवहार पर गर्व है और वो उच्चारण बदलने के बजाय भाषा बदलना और अपनी भाषा पर बने रहना ज़्यादा पसंद करेंगे. रमज़ान और रमादान की बहस को भी इसी नज़रिए से देखने की ज़रूरत है. वरना तो फिर घिया साहेब शूतिया बनते रहेंगे.
रास्ते की गीली मिट्टी कभी-कभी आपकी गाड़ी के पहिए को फँसा लेती है. हम अक्सर इस मिट्टी में फँस जाते हैं. जबकि नज़र तो मंज़िल पर होनी चाहिए. इस कीचड़ से बचकर निकल जायें और अपने गंतव्य पर पहुँचें, यही समझदारी है.
संदेश स्पष्ट है. रोज़े और ईद का, रमज़ान का संदेश है सब्र. सब्र है तो सुकून है. रमज़ान सब्र सिखाता है. मिल-बाँटकर खाना-पीना सिखाता है. दान के लिए प्रेरित करता है. अनुशासन और नियम के पालन का व्रत सिखाता है. सभी धर्मों में व्रत का मूल यही है. शुद्धता, शुचिता, सब्र और समरसता. रमज़ान के उच्चारण की बहस से बड़ा सवाल रमज़ान का संदेश है. ईमानदारी से रमज़ान में रोज़े रखें तो वज़न कुछ कम होगा, कोलेस्ट्रॉल नीचे जाएगा, चेहरे पर चमक आएगी, आप बेहतर व्यवहार करते नज़र आएंगे. नेकी और ईमानदारी से चलने का तरीक़ा फिर से मज़बूत होगा. खाने का सब्र, सोचने का सब्र, हासिल करने का सब्र, थोपने या लादने का सब्र, औरों को देने-बाँटने का सब्र, लालच और भूख का सब्र. कितने सब्र हैं रमज़ान के. आइए, इस व्रत का मूल समझें. उच्चारण से कौन-सा रोज़ा होता है भला?
रमज़ान मुबारक
साभार
हेमंत शर्मा ✍️