विचार बिंदु : "मैं श्रेष्ठ, मेरा धर्म श्रेष्ठ" यह दावा नहीं बल्कि एक प्रश्न है...?

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय
श्रेष्ठता का भ्रम, एक ऐसा जाल है जो मानव चेतना को जकड़ लेता है, एक ऐसा दर्पण है जो हमें वास्तविकता का विकृत प्रतिबिंब दिखाता है। "मैं श्रेष्ठ, मेरा धर्म श्रेष्ठ," यह उद्घोषणा, एक ऐसी प्रतिध्वनि है जो उस अनंत मौन में खो जाती है, जहाँ अस्तित्व का वास्तविक सत्य निहित है। क्या एक नदी, जो अपने उद्गम स्थल पर गर्व करती है, उस सागर की विशालता को समझ सकती है, जिसमें उसे अंततः विलीन होना है? ठीक वैसे ही, एक व्यक्ति या धर्म, जो अपनी श्रेष्ठता का दावा करता है, उस विशाल चेतना को कैसे समझ सकता है, जिसमें सभी अस्तित्व समाहित हैं?
उदाहरण के लिए, एक बीज को लें। क्या वह बीज, जो अभी अंकुरित हुआ है, उस विशाल वृक्ष की जटिलता को समझ सकता है, जिसमें वह बनने की क्षमता रखता है? नहीं, क्योंकि बीज केवल अपनी सीमित संभावनाओं को जानता है। इसी प्रकार, मनुष्य, अपनी सीमित समझ के कारण, उस अनंत संभावना को नहीं देख पाता जो हर जीव और हर विचार में निहित है।
धर्म, जो मानव आत्मा को उस परम सत्य से जोड़ने का दावा करता है, अक्सर विभाजन और संघर्ष का कारण बन जाता है। यह विडंबना, कि जो प्रेम और एकता का संदेश देता है, वही घृणा और विभाजन का कारण बनता है, हमारे अस्तित्व की गहरी विसंगतियों को उजागर करती है। जैसे एक चित्रकार, जो एक ही कैनवास पर विभिन्न रंगों का उपयोग करता है, एक सुंदर कलाकृति बनाता है, वैसे ही विभिन्न धर्म, अपने विविध दृष्टिकोणों के साथ, मानवता की समग्रता को समृद्ध करते हैं। परन्तु, जब हम एक रंग को दूसरे से श्रेष्ठ मानते हैं, तो हम उस कलाकृति की सुंदरता को नष्ट कर देते हैं।
उदाहरण के लिए, गौतम बुद्ध ने कहा, "अप्प दीपो भव" (अपने दीपक स्वयं बनो)। यह उपदेश हमें अपने भीतर के प्रकाश को खोजने और दूसरों के प्रति करुणा का भाव रखने के लिए प्रेरित करता है। वहीं, सूफी संत रुमी ने कहा, "आपके भीतर जो कुछ भी आप खोज रहे हैं, वही बाहर भी है।" यह हमें यह सिखाता है कि हम सब एक ही चेतना के अंश हैं। जब हम इन विभिन्न दृष्टिकोणों को एक साथ देखते हैं, तो हम पाते हैं कि वे एक ही सत्य की ओर इशारा करते हैं: प्रेम, करुणा और एकता।
अंधविश्वास और कट्टरता, जो धर्म के नाम पर फैलाए जाते हैं, उस अंधकार का प्रतीक हैं जो मानव आत्मा को जकड़ लेता है। जैसे एक यात्री, जो एक अंधेरे जंगल में भटक जाता है, अपनी दिशा खो देता है, वैसे ही मनुष्य, अंधविश्वास और कट्टरता के कारण, अपने अस्तित्व का उद्देश्य खो देता है। हमें इस अंधकार से बाहर निकलना होगा, और उस प्रकाश को अपनाना होगा जो हमें यह सिखाता है कि हम सब एक हैं।
उदाहरण के लिए, यदि हम इतिहास को देखें, तो हम पाएंगे कि धर्म के नाम पर कई युद्ध और संघर्ष हुए हैं। परन्तु, जब हम गहराई से देखते हैं, तो हम पाते हैं कि इन संघर्षों का मूल कारण अहंकार और अज्ञान था, न कि धर्म। हमें यह समझना होगा कि धर्म एक मार्गदर्शक है, एक साधन है, न कि एक अंत। हमें धर्म को प्रेम और करुणा के साथ अपनाना चाहिए, न कि घृणा और हिंसा के साथ।
"मैं श्रेष्ठ, मेरा धर्म श्रेष्ठ," यह दावा नहीं, बल्कि एक प्रश्न है। यह प्रश्न हमें अपने भीतर की संकीर्णता को तोड़ने और उस विशाल चेतना को पहचानने के लिए प्रेरित करता है, जिसमें हम सब समाहित हैं। यह प्रश्न हमें यह सिखाता है कि श्रेष्ठता बाहरी दुनिया में नहीं, बल्कि हमारे भीतर निहित है, उस प्रेम और करुणा में जो हमें एक-दूसरे से जोड़ता है।
साभार
अतुल अरोरा ✍️