डा एम डी सिंह की कविता " हताशा"

डा एम डी सिंह की कविता " हताशा"

रिपोर्ट - प्रेम शंकर पाण्डेय 

" हताशा"

कहां गए बादल
जल रहे सभी
कहां है जल
हवा हांकती आग 
आकाश अग्निपथ सा दिखता है

ठूंठ पर बरगद के चढ़कर
देखता हूं दूर तक
धूप आंखों से हरियाली छीनती है
बालू पर बादलों के विम्ब 
दौड़ते से दिखते हैं

चिपक गई तालू से जिह्वा छुड़ाता हूं
फट रहे होठों को सीचने
दौड़ पड़े हताशा की हिरण
अभिव्यक्तियां नागफनी हो रहीं 
अनुभूतियां मरीचिका
कुलहड़ियों की छांव में खड़े हम सभी
लकड़हारों से दिखते हैं

मेरी यादों में कौंधते हैं अग्निपक्षी 
दावानल के बाद
लाल गर्म कोयले खाते हुए
हम अपने बच्चों को
गर्म कोयलों का उपहार
देते से दिखते हैं ।

(18 जून 2005 को जल समस्या पर लिखी गई
मेरी यह कविता मेरे प्रथम काव्य संग्रह 'मुट्ठी भर भूख' से ली गई है।)

डाॅ एम डी सिंह✍️