ऐ गण का तंत्र या तंत्र का गण? इसका मूल्यांकन जरूरी- प्रेम शंकर पाण्डेय

गणतंत्र का किताबी चेहरा अलग, यथार्थ चेहरा अलग
आम नागरिकों के लिए न्याय सुलभ हैं?
कासिमाबाद(गाजीपुर)। देश में गणतंत्र को लागू हुए तीन चौथाई शदी पार हो चुकी है। गणतंत्र का सीधा तात्पर्य गण का तंत्र है। गण यानी देश के आम नागरिक जन एवं तंत्र का मतलब न्यायपालिका विधायिका एवं कार्यपालिका आम नागरिकों की सहूलियत के लिए आम नागरिकों के टैक्स से वेतन भोगी लोगों यानी कार्यपालिका का निर्माण किया गया। आम लोगों के लिए ही विधायिका को यह दायित्व सौंपा गया कि वह समय और परिस्थिति के अनुसार लोगों के कल्याणार्थ नए कानून का सृजन कर सके एवं किसी के मध्य अनुचित व्यवहार होने पर न्यायपालिका उनके साथ न्याय कर सके। आम नागरिकों के लिए क्या न्याय सुलभ है ? आम नागरिक सही समय पर सही न्याय पाने का अधिकारी है। क्या किसान और मजदूर कभी अपने कृषि सचिव या श्रम आयुक्त से मिलकर अपनी बात रख सकते हैं ? क्या विधायिका के लोग आम नागरिकों के बीच से आते हैं या इन लोगों का गठबंधन एक अलग ही कहानी कह रहा है।
चेम्स फोर्ड की रिपोर्ट डराती है एवं निर्वतमान अमेरिकन राष्ट्रपति का यह कथन कि अमेरिका पूंजी पतियों के हाथ में चला गया है। क्या यह वास्तविक लोकतंत्र और गणतंत्र के लिए एक चुनौती है।इसे देश के संदर्भ में जोड़ कर भी देखा जा सकता है। भारतीय विधायिका में एक सांसद को चुनाव लड़ने के लिए चुनाव आयोग से 95 लाख रुपए खर्च करने का अधिकार दिया गया है। क्या देश की 98℅ जनसंख्या जो आम नागरिकों का समूह है। कभी लोकसभा का सदस्य बन सकता है ? गणतंत्र का किताबी चेहरा अलग है और यथार्थ चेहरा बिल्कुल अलग। क्या इन गंभीर मुद्दों पर कभी संसद को विचार मंत्रणा करते देखा है।
आम नागरिकों को अपने अधिकारों का न्याय हासिल करने में ही तीन पीढ़ियां गुजर जाती हैं। कार्यपालिका से आम नागरिकों की दूरी राजा और गुलाम जैसी है गरीब और बेरोजगार मजदूर, किसान को हिकारत की दृष्टि से देखने वाली कार्यपालिका एवं पूंजी वाद की विधायिका क्या वास्तविक गणतंत्र की स्थापना से कोसों दूर है ? आम नागरिक संसद के सर्कस को देख माथा पकड़ कर बैठ जाने को बाध्य है। जहां व्यक्तिगत मान हानि की टिप्पणियां, संसद का बायकॉट, पहनावे और वेशभूषा की अनर्गल बातें एवं नकारात्मक मुद्दों की नकारात्मक बहसों ने जनता की गाढ़ी कमाई का खरबों रुपया बर्बाद कर दिया है।
इस गणतंत्र में हम कुछ क्षणों का विराम लेकर इस वास्तविक स्थिति का मूल्यांकन करें,चिंतन मनन करे तो शायद गणतंत्र की सार्थता भी होगी।वैसे तो हम भारत के लोग प्रति वर्ष गणतंत्र मनाते ही है।
प्रेम शंकर पाण्डेय✍️
सामाजिक कार्यकर्ता, ग्रामीण पत्रकार एवं संचालक सौहार्द एवं बंधुता मंच
विकास खण्ड - कसिमाबाद (गाजीपुर) उप्र.